गुरुवार, 6 सितंबर 2012

28/8/2012


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* ज़मीनपर पड़ी सुई को पलकों से उठाना,
  कोई मज़ाक नहीं नागरिक कवितायेँ बनाना |  

* विचार करना
न क्रिया है, न कर्म
वह तो है स्वयं
विचार का क्रिया - कर्म !

* मैं बड़ा बनना चाहता हूँ
मैं ऊँचा अवश्य उठना चाहता हूँ
जिससे मुझे देखने के लिए
किसी को सर झुकाना नहीं
उठाना पड़ जाय !

* अध्यात्म का मेरे लेखे अर्थ है - आत्मविश्वास |  

* कोई जन्म से ब्राह्मण है, कोई जन्म से शुद्र है | मैं भी अपने बारे में बिल्कुल जानता हूँ - मैं जन्म से मूर्ख हूँ |

* जाति प्रथा समाप्त हो जाय ? क्या आप चाहते हैं मानव जाति समाप्त हो जाय ?

* I J     -  आई जे , पाई ते ,
BNI  J  -  बनाई जे, खाई ते |
# #


* गाँव की ज़मीन 
नहीं छोड़ मिलती 
अनुत्पादक |

* गाँव पर तो 
उपन्यास लिखते 
गाँव न जाते |

* आदमियों की 
आँखें देखता हूँ मैं 
गहराइयाँ |

* शुष्क नयन 
ताक रहे आकाश   
यूँ  संज्ञाशून्य |

* घूम करके 
फिर वहीँ आयेंगे
जहाँ से चले |

* हर चीज़ में 
भ्रष्टाचार ढूँढना 
वाजिब नहीं

* सब खेल है 
दिमागी बुनावट 
जैसा खेलाये |

* सभ्य बनाना 
भी गुलाम बनाना 
है , क्या मैं कहूँ ?

* मूर्खता और 
बुद्धिमत्ता में फर्क 
एक बालिश्त |

* जो चिन्तक है 
वह सोचता नहीं 
सोचना होता |

* पसीना आता
तन तर हो जाता      
आयें हवाएँ |

* समर्पण से  
कमज़ोर न बनो 
ठगी से बचो |

* चेतना नहीं 
न जाग्रति , तनाव 
भर है यह |

* जीव जंतु हैं 
जानवर हों या हों 
मानव जन |

* जाति ख़त्म है  
घोषणा करता हूँ 
पाँत ख़त्म है |

* समाजवाद 
अपने से लेकर 
सबकी चिंता |

* आपने यह 
बिल्कुल ठीक किया 
जो जिंदा रहे |

* चुपचाप हो 
मेरी बात तो सुनो 
मानो न मानो |

* दवा से कोई 
न बचा, न बचेगा 
सब मरेंगे |

* समता दृष्टि 
हो ही नहीं सकती  
नर नारी में |

* अपना होना 
सिद्ध तो करना है 
चाहें जैसे भी |

* मैं अनाहूत 
भिक्षुक, तेरे द्वार 
क्षमा ही दे दो !  

* साधो, क्या जाना 
वहाँ, जहाँ जाति से 
जाना जाऊँ मैं !

* जाति न जाये 
पर जाना न जाये 
व्यक्ति, जाति से |

* आज़ादी तो हो 
कोई भी, जो भी चाहे
वाद निभाए |

* अहं आवाम       
We can do any sort of work 
वयं के साथ |

* बाप का क्या है 
बकना है उसे तो 
अपनी देखो |

* कुछ भी खाता 
खाने के नाम पर
पेट भरता |

* जो अंतर है 
वह है , जो नहीं है 
वह नहीं है |


* मुंशी जी के घर जाने का एक आकर्षण और था कि वहां एम एन राय द्वारा स्थापित संस्था की मैगजीन The Radical Humanist पढ़ने को मिल जाती थी | जब मुंशी जी नहीं रहे तब भी मैं C - 861 महानगर जाया करता था | मिसेज़ मुंशी कहती थीं, ले जाओ इसे, अब इसे पढ़ने वाला कौन है | यह मुझसे नहीं हुआ |  
इसी क्रम में यदि मेरी याददाश्त बिल्कुल धोखा म दे तो आलोक का मकान नम्बर था - C - 213.

* शहर में रहना है और क्रांतिकारी भी बनना है | तो जातिवाद का झंडा न उठायें तो और क्या करें ? यह आजकल बहुत उत्पादक वैचारिक धंधा है | गाँव में होते तो सबके साथ ज़िन्दगी जीनी पड़ती | यहाँ क्या है, फ़्लैट में पड़े हैं, चाहें जिसे गाली दें चाहें जिसका समर्थन करें | फेसबुक और सभा सेमिनारो में कुछ भी लिखें /बोलें जहाँ अपने ही लोग हैं | कुछ भी लिहाज़ करने की ज़रुरत नहीं है | ज़रा आमने सामने, सबके सामने बतियाएँ तो यही लोग ब्राह्मण - सवर्ण क्या, गाँव के कुत्ते को भी वह गाली न दें जो वे शहर में निःसंकोच दे पाते हैं |      

* [ उवाच ] किताबें पढ़ने में एक खराबी है | यही लोग फिर लिखने भी लगते हैं |

* नीलाक्षी जी बुरा न मानियेगा, और बुरा भी लगे तो क्षमा कर दीजियेगा | मैं आप की परेशानी समझ सकता हूँ, क्योंकि दखल द्वारा जारी उस पर्चे में प्रथम नाम उस - - रिहाई मंच का था जिसकी आप समर्थक हैं | लेकिन मैं क्या करता ? उन्ही तथ्यों को अपने व्यंग्यात्मक भाव -शैली में लिखने के अपने तरीके से मैं बाज़ भी तो नहीं आ सकता था ? और बहस - तकरार तो मैं करता नहीं, जैसा प्रमोद जी सुझाते हैं [ व्यक्तिगत वार्तालाप भले कर लूँ विश्वस्त मित्रों के बीच ] | मुझमे उतनी योग्यता/ कुव्वत नहीं है | मैं बहसों को विभिन्न स्थानों पर देखता हूँ और एक सामान्य नागरिक की हौसियत से अपना पक्ष निर्धारित करता हूँ, अपने सीमित बुद्धि और ह्रदय सीमान्तर्गत | फिर मैं भ्रम में नहीं रहता, भले वह गलत हो  या उसे कह / लिख न पाऊँ | कभी कभी व्यक्त भी कर लेता हूँ |जैसे अभी कल ही अपना पक्ष साफ़ कर दिया कि हम मृत्यु दंड के सर्वथा, कतई खिलाफ हैं | जब कि यह आम धारणा के विपरीत तो है ही |   



===========================    30/8/2012     =======================================

* [आदमी को नापने का पैमाना ]
पहले अपनी लिख दूँ वरना बाद में जिन मुंशी जी के बारे में लिखना है वह लम्बा है, और मेरी बात खो जायगी | आदमी को नापने का पैमाना मेरा व्यक्तिगत है | मैं किसी व्यक्ति को ही देखकर उसके व्यक्ति विशेष के गुण - धर्म का अंदाज़ा लगाता हूँ | मैं उसे उसके धर्म -जाति, वाद- किताब , पार्टी -संगठन, से नहीं आँकता | यद्यपि यह सब पता लग जाय तो थोड़ा खाका ज़रूर खींचता हूँ , पर उससे बँधता नहीं | मैं अधिकांश और अंतिम तौर पर उसके बोल चाल, हाव भाव, विचार व्यवहार देखकर उसके अन्दर बाहर का वज़न तय करता हूँ और तब निर्णय लेता हूँ कि उसके साथ मुझे कैसे पेश आना है और उससे किस तरह से कितनी दूर तक किस प्रकार का सम्बन्ध निभाना है ?        
लेकिन हमारे मित्र - गुरु [ यही कहना ठीक होगा क्योंकि गुरुडम न वह मानते थे न मानने देते थे ] श्री एस एन मुंशी जी का तराजू कुछ और ही था, जैसा उन्होंने मुझसे बताया | वह आदमी को इस बात से नापते थे कि वह अपनी आमदनी का क्या हिस्सा किताबों पर खर्च करता है ? काम आय वालों के लिए भी उनके पास उपाय था | यदि किसी वांछित पुस्तक कि कीमत माहांश की धनराशि से अधिक है तो दो तीन माह उपरांत उसे खरीदे | तिस पर भी मेरे लिए अद्भुत मापदंड था यह आदमी को नापने के लिए , और यकीन मानिये जिस दिन उन्होंने यह बात कही , मैं उनसे डरने लगा था और कुछ दूरी का अनुभव | हीन भावना भी पनपी क्योंकि मैं ऐसा ज्यादा नहीं कर पाता था | किताबों के लिए मेरा कोई मासिक बजट नहीं था | मेरा खर्चा ही मुश्किल से चलता था | अलबत्ता पत्रव्यव्हारी होने के कारण मेरे पास अनेक संगठनों के पर्चे और बुलेटिन आते थे जिनसे मेरी क्षुधा शांत हो जाती थी
मुंशी जी के एक अन्य दृष्टान्त ने मुझे नास्तिकता पर दृढ़मत बनाया और जिसके लिए मैं उनका आजीवन आभारी रहूँगा क्योंकि तब मैं, है /नहीं है,  के सागर में डूब - उतरा रहा था | वह पायनियर में थे  | एक दिन उनके किसी मित्र ने कहा - यार मुंशी जी , कभी तो भगवान का नाम ले लिया करो | उन्होंने कहा - ठीक है , काल लंच के बाद | दूसरे दिन लंच खा पी लेने के बात उन्होंने मित्र के सामने दोनों हाथ उठा कर अंगडाई जैसा लेते हुए भगवान को याद किया - " हे ईश्वर तुम्हारी ऐसी तैसी " |
अब इतने , लगभग २८ वर्षों बाद उनकी याद में सनझ लीजिये, मेरी योजना है कि फेसबुक पर निजी दो ग्रुप्स के अलावा एक और ग्रुप बनाऊं " नास्तिक मंडली ", यदि कुछ साथी मिल जायँ तो यह मेरी बड़ी आस्था , रूचि और आनंद का काम है | दूसरी एक और योजना है " SECULAR  REGISTER  " की [सेक्युलर कहे सो सेक्युलर होय ] | देखिये , - - कोई तो साथी मिलें | अब साथियों में भी तो बड़ी मिलावट है !
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भाइयो यहाँ चर्चा चली है तो अपने आन्दोलन की बात रखना मेरा कर्तव्य है कि हम निर्विवाद रूप से मृत्युदंड के खिलाफ हैं | इसमें कोई नानुकर [ If and but ] नहीं है , वह मृत्यु दंड किसी के लिए भी हो - चाहें सुकरात - भगत सिंह के लिए या कसाब - दारा सिंह के लिए | कोई संशोधनार्थ कमेन्ट अपेक्षित नहीं क्योंकि हम इस मुद्दे पर तनिक भी संदेहग्रस्त नहीं | संशयात्मा विनश्यते |  
Sandeep ! स्टेंस ने कहा था - हे ईश्वर इन्हें क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं ? [ यह यीशु का वचन है ] 

* ए के हंगल जी की मृत्यु के समाचारों में एक बात पर मैंने ध्यान दिया कि अंत में उनके परिजनों ने ही उनका साथ दिया | इससे थोड़ा तो विषाद हुआ कि प्रगतिशील संगठन जीवन भर आपसे कितना भी काम ले लें , वे आपके निजी जीवन में साथ न देंगे | जैसा कुछ लोग अपना जीवन दान देकर उम्मीद करते हैं , और इसी प्रत्याशा में घर द्वार परिवार रिश्तेदार सब छोड़ देते हैं | दूसरे इससे यह सीख मिलती है कि अंततः परिवार - समुदाय ही काम आता है , कम से कम भारत में तो , जिस विवाह , परिवार , जाति ,धर्म  की संस्थाओं को प्रगतिशील विचारधारा सदा धता बताने को कहती , उत्प्रेरित करती है | लेकिन ठोस प्रश्न तो यह की हम उनसे इसकी आशा करें ही क्यों ? हंगल जी को हमारी  श्रद्धांजलि

* इकबालिया बयान : - कल [२८/८ को] सीमा आज़ाद [और साथी वक्ताओं] ने अपने प्रभाषण में यही सिद्ध किया कि कुछ किताबें रखना तो बस एक लक्षण भर था जिसके आधार पर उन्हें सजा मिली | दरअसल वे सचमुच ही उसी आन्दोलन  में संलग्न हैं जिसे थ्री जे [ जल - जंगल - जमीन ] कहा जा सकता है जिसके लिए सिर्फ उन्ही को क्यों , सभा में शामिल सारे ही लोग देश द्रोही थे | सबके हाथों में आयोजकों द्वारा जारी एक परचा था -' पूरे होशोहवास में - - - हम ऐलान करते हैं कि हाँ, हम भी देश द्रोही हैं और हमें इस पर गर्व है | - - "  और उनके पति श्री विश्व विजय ने तो अपने ही जेल को नहीं, पूरे देश को ही जेल की संज्ञा से विभूषित किया
अब हम क्या करें ? जाएँ तो जाएँ कहाँ ? [ नोट = इस अंतिम वाक्य को छोड़ कर कोई भी टिप्पणी मेरी ओर से नहीं है, जो जैसा जिन्होंने कहा बस वही अंकित हुआ ]

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* जीत न पायें  
कोई कारण नहीं 
दिखता मुझे |

* भेद न मानो  
इन्सान इन्सान में 
जाति तो मानो |

* महा मानव 
बनना है तुमको 
दलितजन !

* कुछ भी बनो 
महात्मा न बनना 
भूल कर भी |

* समझदारी 
प्राप्त हो जाने पर 
समझदारी ,
बीच की यात्रा तो 
बस तैयारी !

* मैं इतना तो 
क्रांतिकारी नहीं कि
जान  गवाऊँ |

* जातिवाद में ,
किसी मूर्ख ने पूछा,
' बुराई क्या है ? '

* कुछ ज़रूर 
बलिया का पानी है 
असरदार |

* बहरहाल 
आये हैं तो बैठिये 
क्या लेंगे आप ?

* सोचता मैं क्या 
दर्शनों का बोझ था 
मेरे ऊपर |

* समझदारी ?
अंतिम स्थिति होगी 
समझदारी,
बीच के सफ़र का 
क्या मतलब ?

* बनाते वह 
प्रोग्राम हमारा है 
आने जाने का |

* शायद  रहूँ 
आप की दृष्टि से 
बाहर ही मैं !

* गिर गया हूँ 
आप की नज़रों में  
संभवतः  मैं !

* महत्वहीन  
आज का जीत हार 
मुकाम आगे |


* साधो ! वहाँ क्या जाना जहाँ मुझे जाति से जाना जाये ?
* दलित जन सामान्य श्रेणी में नहीं आते | तो वे सामान्य श्रेणी की कवितायेँ , कहानियाँ उपन्यास और अन्य रचनाएँ भी तो नहीं लिखते !
* [ महा मानव ] - बहुत पहले दिनमान में एक कविता पढ़ी थी जो याद आ रही है | तब न कविता की समझ थी न सामाजिक आन्दोलनों की, तिस पर भी वे पंक्तियाँ दिमाग में धरी रह गयीं, क्योंकि वह एक प्रतिष्ठित कवि द्वारा लिखी गयी थी और उस पर प्रशंसात्मक चर्चा चली थी | शायद शमशेर बहादुर जी की थी | पूरी कविता के लिए तो दिनमान खगालना पड़ेगा , पर उसकी उसकी महत्वपूर्ण पंक्ति थी = " खा जायेंगे तुम्हे, ये अफ्रीकी महामानव - - " | स्पष्तः उन दिनों अफ्रीका में कोई मुक्ति आन्दोलन चल रहा होगा, शायद रंगभेद के खिलाफ | पर उसी तर्ज़ पर मैं दलितों को कवि के संबोधन के अनुसार ' महामानव ' की संज्ञा देना चाहता हूँ |   
* २५०० साल का तो बदला लोगे और हजार ५०० सौ साल का बदला नहीं दिलवाओगे ?
* मैं दलित आन्दोलन में , दलित आन्दोलन से बहिष्कृत हूँ |
* मलाई तो पिछड़ों की है | काम काज , कर्म कांड सब ब्राह्मणवाद से चल रहा है और आरक्षण पाने के कारण दलितों के भी सुर्खरू बने रहते हैं |      

* यह समय निहायत गैर ज़िम्मेदार समय है | क्या सत्ता , क्या सत्ता विहीन , सबकी आँखों सत्ता ही सत्ता है | मनुष्य किसी का आराध्य नहीं है | आखिर किसी को तो सोचना चाहिए ? बौद्धिक जन तो social / political correctness में मस्त हैं |
* मैं राजनीति शास्त्री नहीं हूँ पर मेंरा हर राजनीतिक निष्कर्ष सही ही साबित हुआ है | मैं RTI के विरुद्ध था, जबकि मित्रजन इसके पीछे ख़ुशी से मस्त थे | अब देखिये मज़ा ! यह उसी कानून की सफलता का परिणाम है जो केजरीवाल इतने उद्दंड हुए हैं |

*
इस्लाम या हिंदुत्व या ईसाइयत का स्वेच्छा से पालन करना एक बात है, लेकिन पालन करो न करो , हिन्दू मुसलमान " बन " जाना दूसरी बात है | और यह दूसरी बात खतरनाक है | क्योंकि यह पहचान के स्तर पर आदमी आदमी में फर्क कर देता है , और नैतिक फायदा कुछ नहीं मिलता | इनके सारे मूल्य धरे रह जाते हैं , इनका बस टैग , एक लेबल भर रह जाता है |  

* मैं मार्क्सवाद के समर्थन में हूँ , यदि वह दलितों के पक्ष में आत्मसमर्पण कर दे |

* मैं दलित के हित में ही बोल रहा हूँ | यदि सक्षम - संपन्न , कहें कि सवर्ण दलित अपना हक अपने भाइयों के लिए नहीं छोड़ेंगे तो वह विपन्न दलित के भाग्यांश में कैसे आएगा ? जैसे वही पुराना राजीव गाँधी वाला उदाहरण - एक रुपया ऊपर से चलकर हमेशा चवन्नी ही नीचे पहुंचेगी |

* मैं मार्क्सवाद के प्रति हिन्दुस्तानियों के मोह के बारे में सोच रहा था | वह भी तब जब इसका वजूद कहीं भी नहीं है | इतना असफल यदि गांधीवाद होता तो वह उसे लात मार देता, मार ही रहा है | इसका क्या कारण हो सकता है ? मुझे यह मार्क्सवाद कि शास्त्रीयता में दिखता है | यह एक शास्त्रीय  वाद है , और बहुत कठिन - संश्लिष्ट | शास्त्रों में बड़ा मज़ा आता है हिन्दुतान को, उसके पारायण में और उसकी  विवेचना में | वह आनंद इसे मार्क्सवाद की मोटी पतली बहुसंख्यक रंगमयी पुस्तकों में मिल गया | ऊपर से सोने पर सुहागा लग गया लेनिन - माओ आदि विचारकों की व्याख्याओं द्वारा | फिर इसे और चाहिए क्या था ? यह उनमे जुट गया | पुरानी किताबें वेद पुराण आदि इसने, इसके पूर्वजों ने  बहुत खगाल लिया | अब विज्ञान का युग ज़माना है और वैज्ञानिकता की बड़ी गर्म छौंक मार्क्सवाद में है | इसका नाम ही वैज्ञानिक समाजवाद है | दूसरी ओर इस पढ़ाकूपन  से दलित जन भी ग्रस्त ही हैं | वे इंकार करते रहें , पर शास्त्रों , किताबों के प्रति उनकी भी ललक उनके भारतीय संस्कारों की ही देन है | वरना वे यह दुहाई न देते फिरते कि यह देखो मनुस्मृति में यह है , वेदों में यह है , रामायण में दुष्ट बाबा तुलसीदास यह लिख गया है | इन्हें जलाने का कार्यक्रम तो  इनके पास है पर इनसे छुटकारे का नहीं | अन्यथा क्या मतलब होता कहाँ क्या लिखा है | उसी तरह जैसे एक साम्यवादी जीवन उनके अजेंडे में कहीं नहीं है पर इस ज्ञान में कोई कमी नहीं है कि मार्क्स ने यह लिखा है , इस बारे में लेनिन ने यह कहा है, माओ का विचार यह था कि - -  | कब मुक्ति मिलेगी मनुष्य को किताबों से बाबा जे कृष्णमूर्ति जी ? ?


* मैंने कहा -
विनम्र बनो ,
उसने मुझे 
एक चाँटा 
जड़ दिया |
#
* शहर में 
घर बनवाया था 
सोचा था - 
फैल कर रहेंगे ,
नहीं हो पाया 
किराये पर 
उठाना पड़ा |
#
* मेरा ख्याल है 
प्यार
जताने से पहले 
हमें अपना 
मुँह शीशे में 
देख लेना चाहिए |
#
*  हम मच्छर को 
मार देते हैं '
कहाँ सोचते हैं 
उनमे हमारा ही 
खून हैं
#
* हम दोनों 
दो सामानांतर रेखाएँ हैं ,
प्यार के देश की 
दो संरक्षित सीमायें हैं '
थोड़ा मैं दूर हटा 
थोड़ा सा तुम भी परे 
फिर तो बढ़  ही गया 
क्षेत्रफल हमारे प्यार का !

#

* मेरा ख्याल है किसी बह्मा ने नहीं बनाई जात पात |  
[ इतनी सीधी सी बात दलित आन्दोलन क्यों नहीं समझ / कह पा रहा है , यह चिंता ही नहीं आश्चर्य की बात है | क्या समझा जाय कि आरक्षण आदि सुविधाओं के लोभ में इतनी अज्ञानता प्रकट की जा रही है ? क्योंकि जो सवर्ण भली स्थितियों में हैं वे तो यह दावा नहीं करते फिरते कि वह ब्रह्मा के मुँह , भुजा अथवा जंघे के जाये हैं | ]
अनुमानतः, कुछ पढ़े लिखे [ब्राह्मण] लोगों ने राजा के साथ बैठकर अपने तथा राजा के स्वार्थ के लिए जनता पर अपना कब्ज़ा बढ़ाने के लिए कुछ भेद भाव के नियम बनाये और उसे जनता पर लागु कर दिया | उससे साधारण गरीब दलित भी कुचला गया और साधारण गरीब ब्राह्मण भी | फर्क यह हुआ कि ब्राह्मण के ख़ानदान के लोग यह सोचकर मग्न रहे और अपनी दलितावस्था झेलते रहे कि चलो हमारा प्रतिनिधि तो राजा के समीप उसका शिक्षक है | उसने जो किया भले के लिए किया होगा और इसके चलते उसमे भी एक ऐंठ , एक अहंकार पैदा हो गया
यही  अब फिर पलटकर विपरीततः होगा | दलितों के कुछ श्रेष्ठिजन उनके प्रतिनिधि बनकर शासन में जायेंगे , तब दलितों आत्मविश्वास की आंड में एक अहंकार पनपेगा दलित चेतना के नाम पर [वही हो रहा है ], जबकि वे रहेंगे शोषित के शोषित ही | जिस प्रकार दलित ब्राह्मण यही सोचता था कि उसके कुछ पूर्वज तो शासक थे , उन्हें इससे लाभ क्या मिला , कोई नहीं देखता |
फिर  , कुछ तो समझौता करना ही पड़ता है | ब्राह्मण कर नहीं रहा है क्या ? पर कुछ लोग उसे इतना झुकाना चाहते हैं कि उसकी कमर ही टूट जाय | ज़ाहिर है , २५०० वर्ष पहले किसी जुर्म की जो सजा रही होगी वह आज तो नहीं हो सकती | अब democracy है , मृत्युदंड भी rarest of rare  है और आप चाहते हो कि उसे देखते ही गोली मार दी जाय, या निकटतम बिजली के खम्भे से लटका दिया जाय | तो यह तो संभव नहीं है | लोकतंत्र के सारे फल किसी एक के काम तो नहीं आयेंगे , अकेले आप को भी नहीं दिए जायेंगे | यह भूलने की बात नहीं है की जो सदन दलितों का हितकर है उसमे सवर्ण भी दलित हितों के लिए सक्रिय हैं | वे यदि श्रेय के पात्र नहीं हैं तो अपमान के भी अधिकारी नहीं |  

* सवर्णों के वश का नहीं है यह राज्य , यह मैं अकारण नहीं कह रहा हूँ | सारा पाखंड इन्ही का रचा हुआ है | आरक्षण , फिर और आरक्षण आदि के शगूफे इन्ही के छेड़े हुए हैं | वी पी सिंह , मुलायम सिंह वगैरह क्या दलित हैं ? जब दलित शासक होंगे तब ब्राह्मण आन्दोलनरत होगा और दलितों को अपने हिस्से में से उसे देना पड़ेगा | तब पता भी चलेगा आटे दाल का भाव, की शासन करना किसे कहते हैं | तब फिर सीखेंगे ये चाणक्य और मनु से राज करने की नीति | तब यह समता आदि की दुहैयाँ धरी रह जाएँगी | वह शासन भी सख्ती और विषमता पर आधारित होगा | फिर भी हो तो - यह हम चाहते हैं | यह रोज़ रोज़ दिन रात का रगडा तो मिटे ! 

* आंबेडकर जी के बनाये संविधान में संशोधन करके कोई इतर प्रावधान करना, मुसलमानों के लिए , प्रोन्नति के लिए आरक्षण का छेद बनाना डा आंबेडकर का एक प्रकार से अपमान है |

* शहर में रहता हो / और क्रांतिकारी हो / विश्वास नहीं होता |

* मैंने मित्रों से एक बार कहा था , तो लिखा भी होगा , कि यदि हम लोग इसी तरह शहर में नाटकों के कार्यक्रमों में नियमित आते रहे तो एक दिन कभी ' दिया बाती '
के लिए हमें स्टेज पर बुला लिया जायगा | मज़ा आया , मेरी भविष्य वाणी सत्य सिद्ध हो गई | २७ अगस्त को आनंद प्रह्लाद के नाटक [ मरणोपरांत ] के प्रारंभ में मुझे मंच पर बुला लिया गया | मैं अपने ही बनाये जाल में फंस गया |


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* हे प्रभो ! मुझे सच्चाई से दूर झूठ की ओर ले चलो | आजकल इसी का बोलबाला है | इसके बिना गुज़ारा नहीं इस दुनिया में |

* २५/८/२०१२ को अख़बार में अच्छी खबर थी | १३ न्यायाधीशों ने राष्ट्रपति से क्षमा माँगी है कि उन्होंने कुछ मामलों में मृत्यु दंड की सजा दे दी और Rarest of the rare का पूरा ध्यान नहीं रखा | इसमें से दो को मृत्यु दंड दिया भी जा चुका है | और यदि राष्ट्रपति ने क्षमा दान न दिया तो और भी म्रत्यु दंड को प्राप्त होंगे |
मृत्यु दान की सजा में यही दोष है | न्याय को अपनी गलती का एहसास होने पर उनकी जिंदगियां वापस नहीं ली जा सकतीं | हमारा स्टैंड सही है कि म्रत्युदंड की सजा नहीं होना चाहिए | अभी जो कुछ लोग इसे कायम रखना चाहते हैं उनका अपने बचाव में कहना यही होता है कि इसे रहने दो , यह तो Rarest  of the rare है , दुर्लभ से दुर्लभतम | तो देखिये अब उसका नतीजा | अब उन्हें गलती याद आई , पर आदमी की तो जान गई ?    

* अयोध्या का धोबी :-
भारत में अब देवता नहीं रहते , यह माना जाना चाहिए | हिं. २८ अगस्त , 'अफगानिस्तान में तालिबान ने १७ नाच गा रहे लोगों के सर कलम किये |' यह खबर भारत में भी आई | ऐसी ख़बरें आती रहती हैं | और देश - विदेश की ख़बरों से सिर्फ मुसलमान ही प्रभावित हों ऐसा तो नहीं हो सकता | हिन्दू भी थोड़ा हिंदी पढ़ा होने के कारण उन्हें पढ़ते हैं, और उन पर भी कुछ असर होता है | जैसे पाक से हिन्दुओं का पलायन , हिन्दू कन्याओं का ज़बरन निकाह , १२ साल की ईसाई लडकी पर कुरान को अपवित्र  करने का आरोप , लखनऊ बलबा ११ दिन २ गिरफ्तारी , रामपुर निगम अस्पतालों के अनुदान रोक कर १५ लाख प्रतिवर्ष आज़म सपत्नीक के जौहर ट्रस्ट को देगा , इत्यादि इत्यादि अनगिनत | तिस पर भी अलबत्ता हिंदुस्तान जुम्मे जैसी हरकतें नहीं करता , और कभी करता भी है अवसर पाकर तो खिसियानी बिल्ली की तरह | लेकिन वह प्रभावित तो होता ही होगा मन ही मन | क्योंकि वह देवता नहीं हैं | कहा जाता है भारत में ३३ करोड़ देवी देवता थे | अब तो उनकी जनसंख्या बढ़ गई होनी चाहिए थी | हाँ , हो सकता है वह दलित जनसंख्या देवता हो गई हो जो मुसलमानों के साथ राजीतिक प्रेम की पेंगें बढ़ाती दिख रही है | वह तो ३३ करोड़ से अधिक हो सकती है | पर शेष नीच ब्राह्मणवादी जन तो अब देवता नहीं रहे | जैसे मैंने विगत ईद पर किसी से न ईद की मुबारकबाद ली न दी | क्या समझते हैं जो कुछ राजनीतिक जगत में हो रहा है उसका कोई परिलक्षण दोनों समुदायों के बीच व्यवहारों में प्रवेश नहीं कर सकता | यह क्यों मान लिया जाय कि राजा राम चन्द्र जी जो कुछ भी राजनीति के दबाव में करते रहेंगे और अयोध्या का धोबी अपनी मेहरारू से कुछ नहीं कहेगा ?     


* आँख का पानी 
कब बरस गया 
गाल गीले हैं |

* डूब गया मैं 
गहरे पानी पैठ 
तुम निकले |

* तुमने मेरी 
ज़िन्दगी बदल दी 
ऐसा क्यों किया ?

* कैसे कह दूँ 
आराम नहीं मिला 
तुम जो आये ?

* तेरी जुल्फों का 
पेचोखम नहीं है 
यह दुनिया |

* लड़कियों का 
शोषण - रोज़गार 
एक ही साथ

* निजात नहीं 
है दकियानूसी से 
यहाँ कहीं भी |

* गालियाँ लिखो 
राही मासूम रजा 
बन जाओगे

* हाथों में हाथ 
दे लातों पर लात 
प्यार की बात !

* वकील भी हैं 
वी आई पी हैं शाश्वत 
प्रेस भी तो हैं !

* जाति बताओ 
यह हमारे बड़े 
काम आएगा |

* काला कानून  
न सफ़ेद कानून 
फेंको कानून |

* नहीं बनती
बेवकूफ पब्लिक  
बनाते रहो |

* वही करेंगे 
जो कर सकते हैं 
अधिक नहीं |

* सुनसान है 
जमघट लगा है 
हृदय क्या है ?

* दिल अपना 
और प्रीत परायी 
है दुखदायी |

* पुरानी याद  
बनाये रखती है  
युवा - लतिका |

* कोई आदमी 
किसके पास बैठे 
कहाँ आदमी ?

* अब तो मुझे 
अच्छा नहीं लगता 
सुख - सेज भी !

* कौन करेगा 
आन्दोलन , खिलाफ 
रामदेव के ?



* ' जाति से बदल सकता है बहुत कुछ ' [- आकार पटेल , वरिष्ठ पत्रकार - हिं. २८/८ ] पढ़ने लायक है  दलित हित कर्मियों के लिए | भले वे इसे EPW  में पढ़ चुके हों | इसमें लेखक का अपना इनपुट है | eg - " - - जाति की संस्कृति ही हमारे बहुत सारे गुणों और दोषों को निर्धारित करती है  / हम संस्कृति से जो गुण हासिल करते हैं , उन्ही से हमारा व्यवहार निर्धारित होता है , क्योंकि व्यक्तिवाद के पैमाने पर भारतीय बहुत नीचे रह जाते हैं ? शिवाजी के अष्टप्रधान में सात ब्राह्मण थे और सिर्फ एक मराठा | क्या शिवाजी ने भेदभाव किया था ? मैं कहूँगा नहीं | / बहुत अच्छे प्रशासक और लड़ाके चितपावन ब्राह्मण पेशवा वंशजों को जब शिवाजी ने ज़िम्मेदारी दी  तो 20 बाजीराव थे , 19 बालाजी राव और 17 माधव राव | उनकी कुल जमा प्रतिभा उनकी जाति थी | दरअसल , महत्वपूर्ण वे मूल्य और वह  संस्कृति थी, जिसमे  उनका  पालन  पोषण  हुआ  और जिसने  उन्हें  कामयाब  बनाया  | एक  और उदाहरण  , दूकानदार  हेमू  का है | अगर  उन्हें  पानीपत  की  लड़ाई में गलती से तीर न लग जाता , तो वह मुग़ल वंश की जगह एक महान बनिया वब्श की स्थापना करते | मुगलों ने वैश्य मूल्यों को गलत ढंग से समझने की कोशिश की | औरंगजेब के निधन के बाद उनके बेटे आज़म और मुआज्ज़म आपस में लड़ते रहे | आज़म अपने दस साल बड़े मुआज्ज़म को बनिया कहता था | आखिरी लड़ाई में सैनिक आज़म पर मुआज्ज़म बनिए की , जीत हुई | - "      

* इसके अलावा आज २८/८ के Indian Express में प्रताप भानु मेहता का आरक्षण पर लिख पढ़ा तो जा ही सकता है |

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