मैं तो वही हूँ | धीरे धीरे पसंद आने लगेगी | कुछ कारण है जो मैं ऐसे हल्के नाम रखता हूँ
जिससे गंभीर विचारक मुझसे डा ईर्ष्य ा ] न करें | To
Rakesh
* आग है नहीं /
क्रांतिकारी बनने
/
चले मुरारी |
* हमारे पास /
न आग , न विचार /
क्या क्रांतिकारी ?
* विचार नहीं /
बस ज्ञान भर है /
निरर्थक है |
* पढ़ लो बेटा /
भूख लगी है अम्मी
/
सो जाओ बेटा |
[हाइकु में मुराही ]
* करुणा है
तो
क्या करें , वरुणा में
कूद जाएँ
क्या ?
* कैसे मनई
करुणा तो है नहीं
खाक आदमी |
* हमरे ठिर
एतना बुद्धि कहाँ
जो हम बोली ?
* मेरी किताबें
वह उठा ले गई
अब क्या पढ़ूँ ?
* बहस और
बड़े - बड़े लोगों
से !
संभव नहीं |
* नहीं चलता
' जी ' लगाने से काम
' सर ' लगाते |
* यहाँ चलेगी
गुरु - शिष्य की
प्रथा
क्या कर लोगे ?
* जाति छोड़ना
सवर्ण का काम
संभव हो तो !
* दलित लड़ा
तो ब्राह्मण भी
भिड़ा
ऐतराज़ क्यों ?
* यदि श्रेष्ठ हो
तो , श्रेष्ठ बनो भी तो
श्रेष्ठ
कहाओ |
* तुम्हारे पास
आते हैं जी , समय
नष्ट करने |
* पुलिस गश्त
जनजीवन त्रस्त
मुस्लिम मस्त |
* जातिवादी जो
बनो, ठीक से बनो
क्या लस्त पस्त !
* मूर्खों के नाते
अपने पैरों पर
छुरा मारें क्या ?
* देवता लोग
दिन भर झगड़ते
रात मिलते |
* मूर्खों की टोली
कहीं यदि बनी हो
मुझे बुलाएँ |
* दलित सब
घृणा से ओत -
प्रोत
मनुवाद से |
* आंदोलनों की
अपनी दुकानें है
जो चलती हैं |
* यह लड़ाई
अनेकता दृष्टि से
हमको भायी |
* वर्मा का नाम
देवबंदी रख लो
नाम बदलो ,
परिचायक
कुछ हो प्रवृत्ति
का
तब तो नाम !
समतावादी
कर्म में जुट जाओ
फिर निर्द्वंद्व |
[उवाच]
* बच्चों को यदि मैं बच्चे कहता - समझता हूँ , तो मैं उनका बाप - दादा ही तो हुआ ?
* हिंदी में जो लिखा जाता है वही बोला जाता है , इसके आधार पर
सोचता हूँ यदि रोमन में लिखे BURMA देश [अब म्यामांर, जिसके लिए इतना
बवाल हुआ ] को और हमारे लखनऊ के BURLINGTON
होटल चौराहे को यदि यथावत कोई हिंदीभाषी बोल दे तो सभ्य समाज में उसकी
क्या स्थिति होगी ?
* [उदगार ] - सचमुच आपने जाति छोड़ी नहीं है | वहीँ के वहीँ , वैसे के वैसे ही
रह गए आओ ! कोई परिवर्तन नहीं
आया | न भाषा में न बोली में | न गुण चरित्र में, न व्यवहार में, न सोचने के ढंग
में |
* पाकिस्तान बनने के बाद भी हिंदुस्तान हिंदुस्तान नहीं बन सका ! [नागरिक उवाच ]
[हाईकू] - हिंदुस्तान तो /
पाकिस्तान के बाद / हिंदुस्तान हो !
* जब कोई मुझे होली दीवाली की मुबारकबाद देता है , तो लगता है वह
हमें हिन्दू होने की याद दिला रहा है , जो हमें पसंद नहीं
| अब सोच रहा हूँ ईद मुबारक कहकर कहीं हम भी उन्हें मुसलमान होने का अहसास तो
नहीं करा रहे हैं , जो संभवतः उन्हें भी पसंद न हो ! इसलिए इस
वर्ष से यह औपचारिकता छोड़ रहा हूँ | मैं किसी को कोई धार्मिक त्योहारी शुभकामना नहीं दूँगा | वैसे भी इसका कोई
वैज्ञानिक असर तो होता नहीं , मेरे कहने - चाहने से
उसका भला तो हो नहीं जायगा | एक सांस्कृतिक
परंपरा है , उसे अब कितना निभाना
जब इससे कोई भाई चारा कोई सौहार्द्र भी कायम होता तो दिखता नहीं !
* हम क्यों करें ?
वह करें तो करें
प्यार की बात !
* है नहीं पर
मानने में क्या
हर्ज़
ईश्वर अल्ला !
*शादी नहीं की
तो 'काम' कब किया ?
कैसे संभव ?
* एक ही बात
उमड़ घूम कर
मन में आती |
* बहुत दिन
अटकी रही बात
आज निकली |
* बचाने चला
ईश्वर को आदमी
उलटबासी !
* अब मनुष्य
बनने की कोशिश
घातक हुई |
* काफी हॉउस
सर पैर सहित
बेसिर पैर | [ हाइकु ]
================== 21 / 8 / 2012 ============================
नील जी , मैं सोच रहा था आप से request करूँ कि Nonsense को Rename कर दीजिये | नीचे कुछ लिख रहा
हूँ \ कुछ मज़ा नहीं आ रहा है | न यह वैचारिक रहा न मजाहिया | कोई हैं ही नहीं इस ग्रुप में लिखने वाले | नये नाम से एक तो हिंदी हो जायगा , दूसरे ज्यादा लोग शायद लिखने को प्रेरित होंगे | व्यक्तिगत मैं तो फिर इसी को अपना होम पेज बना
लूँगा | तथापि चयन आपका , निर्णय आपका | और हाँ इसे भी मजाक में उड़ा दें चाहें तो
=
हा हा हा / हँसी
हँसी में / हँसमुख / हास्य विचार / शाकाहारी मज़ाक / जीवन हास्य /
हँसना मना नहीं / गंभीरता वर्जित / या आपकी पसंद का ऐसा कोई शीर्षक etc etc - -
Description
= केवल हास्य- व्यंग्य | पोस्ट को गंभीरता से लेना वर्जित | गंभीर सामाजिक सांस्कृतिक दार्शनिक राजनीतिक पोस्ट को कोई हँसी में
उड़ा दे , मजाक बना दे तो वह गुनहगारनहीं होगा | इसके लिए तैयार रहें तो किसी भी प्रकार के
पोस्ट लगाये जा सकते हैं - गंभीर से गंभीर |
लेकिन गंभीरता की
उम्मीद और जूते [ आक्रोश ]
बाहर उतर कर आयें | जिन्हें कुछ बुरा लगने का मरोड़ शुरू हो वे
चुपके से ग्रुप से निकल लें | सभा को डिस्टर्ब न
करें , यहाँ बड़ी महत्वपूर्ण बातें होती हैं |
[ या / और इसी प्रकार की पंक्तियाँ ]
सूत्र = " जब
गंभीर विचारों का मजाक ही उड़ जाना है , तो मजाक को ही
अपना विचार क्यों न बना लें ? "
Open
to all , subject to the policy of the group . ? ?
?
-------------------
Notes
for me , to make my group like this | If neel makes it , change ur gr for
religion
AGAR
= anti god anti religion ANEESHVAR / ISHVAR NAHI HAI / Nastik Dharm /
ikta
धार्मिक आन्दोलन =
पाखंडहीन, ईश्वरविहीन मानव मूल्यों के बारे में सतत चिंतन | जिन्हें अपनी जमी हुयी आस्थाओं पर चोट लगने का अंदेशा हो वे कृपया इस
समूह से दूर रहें | यद्यपि हम ऐसे पोस्ट नहीं लगाते फिर भी नाज़ुक आस्थाओं का क्या भरोसा वे किस बात पर चिटकने लगें !
If
she does not change - उग्र मजाक / हास्य
विचार / कोई मजाक है ? /
मजाक है क्या / क्या मजाक है / हँसी मजाक is too good / हर फिक्र को - -
Unabashed
- अचिंतित , अविचलित [] ऐसे
पोस्ट्स जिनके लिखने / लगाने वालों को यह चिंता नहीं होती कि उन पर किसी की क्या
प्रतिक्रिया होगी |
* सवर्ण दलित के मध्य खूब घमासान चलता है ,फेसबुक से लेकर सभा सेमिनार , अख़बारों और किताबों में | यहाँ तक कि वह अप्रिय भाषा के माध्यम से कटुता
और आपसी वैयक्तिक वैमनस्यता की भी सीमा छूने लगती है | इस पर किसी ऐतराज़ का जवाब यह आता है कि यह राजनीतिक चेतना का संघर्ष है और एक
समतामूलक समाज बनाने के लिए ज़रूरी है | समझ में आये न आये
लेकिन मानना तो पडेगा | चलिए मान गए | लेकिन तब आपके ही
तर्क पर आपको मेरी भी बात माननी ही पड़ेगी | ऐसा ही द्वंद्व तो हिन्दू मुसलमान के बीच भी चल
रहा है | हिन्दू कहता है जब मुसलमान देश बाँट कर
पाकिस्तान अलग ले गए ,तो अब शेष भारत हिन्दू राज्य हो गया | मुसलमान भारत में उसी प्रकार रहें जैसे
पाकिस्तान में हिन्दू रह रहे हैं | इस पर हिन्दू को
सांप्रदायिक क्यों करार दिया जाता है | वह भी तो हक की
लड़ाई है और बिल्कुल तर्कसम्मत | मुसलमान भी बाहर
से आये लूटपाट, मंदिरों का तोड़ फोड़ किया, हिन्दुओं को
मुसलमान बनाया और हज़ार साल शासन किया |
अच्छा किया या बुरा ,पर थे तो वे विदेशी जैसे आप आर्यों को बताते हो
,जबकि वह बहुत पहले की बात होगी | क्या हिन्दू की लड़ाई अपनी अस्मिता, आज़ादी, सम्मान और अधिकार के लिए नहीं है | फिर इसके लिए
हिन्दू को
धिक्कारा क्यों
जाता है | फिर इसमे आप लोग उसका साथ क्यों नहीं देते ? मुसलमान भी कोई कम ब्राह्मण तो नहीं हैं ?
* वह आपका बँटवारा है जो न सवर्ण हैं न दलित |
आप न दलित वाले हिन्दू की बात कीजिये
न सवर्ण वाले हिन्दू के | किसी के क्षेत्र में हस्तक्षेप न कीजिये ,वी पी सिंह के नमक का हक अदा कीजिये और पिछड़ों के ही मौलवी बनिए | यदि इमानदार हैं, तो जब विभाजन हो ही गया है तो न सवर्ण की चिंता कीजिये न दलित की नेतागिरी | जिस प्रकार हम दलित की बात न करें ,ऐसा आपने फतवा जारी किया हुआ है | आप भी अपनी सीमा में रहिये |
'यह वाले वह वाले' हिन्दू की अवधारणा सबकी एक साथ घुस जाती है जब मुसलमान अपना शक्ति प्रदर्शन करता है | जब गुलामी आयेगी तब अलग अलग नहीं आएगी | आपके ख्याल से मेरा रास्ता गलत है तो मैं आपका रुख बिल्कुल गलत और अमानवीय तक पाता हूँ |
बेहतर हो हम बहस में न उलझें और
अपना अपना काम करें | To Sandeep Verma [kurmi]
* हाँ यह तो है, लेकिन भाई सच्ची
कहूं मेरा मन इसमें नहीं लगता | सोचता हूँ तो बस
छुटकारे की | यह तो दुनियादारी का दबाव और संदीप का विमर्श
जो थोड़ा खेल मजाक कर लेता हूँ | पर अपनी ज़िन्दगी
भर की कमाई धूल में तो नहीं जाने दूँगा - जन्मना मनुष्य में अंतर नहीं करूँगा , भले अपनी भावना मन में दबा कर रखनी पड़े और बाहर
जातिवादी होने का ढोंग करना पड़े , जैसा मित्र संदीप आवश्यक बताते हैं | वह मानेंगे नहीं
कि उन्हें कायस्थ समझा जा सकता है क्योंकि ऊपर आपका उदाहरण , फिर हम जानते हैं कि रूपरेखा जी भी कायस्थ हैं | इसी प्रकार
सत्येन्द्र जी को भी कायस्थ माना जा सकता है क्योंकि कल आपने बताया कि नीलाक्षी सिंह कायस्थ हैं | इसलिए क्या फर्क पड़ता है - नाम कुछ हो समझा
कुछ जाय ? मैं अब भी दृढ़ हूँ कि इन पुछल्लों से समय रहते
ही छुटकारा पा लिया जाय तो ही अच्छा, और मुझे तो लगता
है इससे मानसिकता पर भी कुछ प्रभाव ज़रूर पड़ता है | कोई प्रकटतः तो कुछ नहीं समझेगा | 'वह जान ही लेगा ' के चक्कर में हम अपना कार्यक्रम तो नहीं छोड़ सकते ? जान लेगा तो जान ले किसे परवाह ? हम इग्नोर तो कर ही सकते हैं [यह एक नया
फार्मूला मित्र लोकेश और वृद्ध नरायन जी से मिला ] | संदीप जिद करके
हमें humiliate
करते हैं, पर इस आई कार्ड से
तो छुट्टी लेनी ही है | कोई मतलब नहीं कि कब मानसिकता बदलेगी कब जातिवाद समाप्त होगा | इसे रहना है तो हमारे सरनेम विहीन नाम से रहे | और अपने बच्चों को तो हम इससे बचा ही सकते हैं | आप ज्यादा मेरे संपर्क में नहीं रहे पर मैंने
बेटी का नाम रजनीगंधा और बेटे का नवनीत कुमार, नाती का पारिजात, पोते का दिनमान रखा तो इससे कोई नुकसान तो नहीं हुआ | सब नागरिक के
खानदान के रूप में जाने जाते हैं | और वे चाहें तो बता सकते हैं हम कायस्थ हैं पर
सरनेम नहीं लगाते | बने जातिवादी लेकिन हमने तो आधार बना दिया उनके
जातिहीन होने का | अब सब काम तो हम कर नहीं लेंगे, न सबके हम ज़िम्मेदार हैं | जितना बन पड़े उतना ही थोड़ा कर लें तो सुकून तो
मिलता है ? चलिए यही स्वान्तःसुखाय सही |
To Ambrish
*सच तो यह है कि
कोई ब्राह्मणवाद से नहीं लड़ रहा है ,लड़ ही नहीं सकता | सबको सुख सुविधा आराम चाहिए,जो बिना
ब्राह्मणवाद के संभव नहीं | इसलिए लडाई केवल
ब्राह्मण से लड़ी जा रही है, व्यक्तिशः सवर्ण से |
* सुविधाभोग में शोषण और भ्रष्टाचार शामिल हो जाय
तो वह बुरा हो जाता है | कर्तव्यनिष्ठां समता न्याय पूर्ण अर्जन और उपभोग ब्राह्मणवाद नहीं है | अब इसमें पेंच यह
आ जाता है कि बिना शोषण सुविधा के अकूत साधन नहीं जुटाए जा सकते | इसी के खिलाफ हमें
होना है | इसी के खिलाफ कोई मानस तैयार नहीं हो रहा है | ब्राह्मणवाद के
नाम पर ब्राह्मण से झूठी लड़ाई लड़ी जा रही है | यह मेरी कमी है कि
मैं बात अतिसंक्षिप्त,एक पंक्ति में कहता हूँ ,और समझदार मित्र उसे समझ भी जाते हैं अपनी तरफ
से |
बटोही जी आभार,आपने बात को उठाया | पर मैं आप कि बात इस बार बिल्कुल समझ नहीं पाया | मैं ज्ञानी नहीं हूँ तो विवादी भी नहीं हूँ | समस्या पर अनुभूत कोई विसंगति दिखती है तो
प्रकट कर देता हूँ | ब्राह्मणवाद जिससे कोई नहीं लड़ रहा है,से मेरा आशय था,और इसे मैं ऐसा ही
समझता हूँ कि अपने को अकारण श्रेष्ठ मानने का दंभ -वाद,अनुचित श्रेष्ठतावाद | और दूसरे को बिना जांचे परखे ही नीच अयोग्य हीन
घृणित करार देना,अर्थात अनुचित अस्पृश्यतावाद |जबकि उसकी श्रेष्ठता अप्रमाणिक और असत्य हो,और दूसरे की निम्नता भी निराधार | इसमें शामिल है ज़रूर जन्म का कारण, पर अन्य वजहों से , सही या गलत, घमंड में चूर होना
मुझे ब्राह्मणवाद ही लगता है | आप मेरे निकट
मित्र हैं तो मेरी प्रोफाइल जान लें कि मैं कैसा भी हूँ पर मुझे अहंकार से सख्त
नफरत है | मुझमे इसके प्रति और वैसे भी थोड़ा आक्रोश रहता है | अब बताएँ यदि मुझसे कोई त्रुटि हो गई हो तो !
* ज्ञानी,गुणी ,श्रेष्ठ, उच्चतर महान मानव बनो पर इन पर घमंड न करो | बड़ा बनो पर बड़ा दिखने का प्रयास न करो | समाज के लिए करो पर समाज से कुछ पाने की आशा न रखो | सभी बराबर के
मनुष्य हैं ,किसी को नीचा न समझो | सारी सम्पदा सुख वैभव अपने पास बटोरने का
उपक्रम न करो | ऐसी ही कुछ बातें हैं जो हमें ब्राह्मणवाद से
फर्क और विपरीत बनाती हैं | किसी के किसी कुल वंश जाति धर्म में पैदा हो
जाने से क्या होता है | इस जन्म में कुछ अपना पैदा करके खाएँ- खाते हैं
,खाना चाहते हैं ,इसी को मैं
ब्राह्मणवाद के विरोध में दलितवाद कहना चाहता हूँ ,जिसके पास जन्म की
कोई पूँजी
नहीं है |
* मैंने अपने एक जानकार मित्र से मार्क्सवाद के अनुसार समाज के विकास
क्रम का पता लगाया | पहले आदिम
साम्यवाद था ,फिर दास प्रथा आई ,तब सामंतवाद और आगे चलकर पूंजीवाद का विकास | पूँजीवाद की चरम स्थिति में साम्राज्यवाद आता
है और तब समाजवाद | समाजवाद के बाद फिर साम्यवाद आता है |
इस पद्धति
पर मैं आज औरतों की स्थिति का बुढ़भस आकलन करता हूँ तो पाता हूँ कि आदिम साम्यवाद ,दासप्रथा ,सामंतवाद की
सीढ़ियाँ पार कर अब वह पूंजीवादी अवस्था में है | उसकी तिजोरियों से
लाखों रूपये सोना और चाँदी बरामद हो रहे हैं | जब इसका चरम हो
जायगा तब वह साम्राज्य की अधिकारिणी - सम्राज्ञी हो जायगी | उसके बाद उसे समाजवादी-साम्यवादी अवस्था में आना चाहिए लेकिन लगता है वह बाबा मार्क्स को
किनारे कर सीधे फिर आदिम स्वरुप में आ जायगी |
*लगता है क्षमा ही माँगनी पड़ेगी | प्रथम दो तो
बिल्कुल नहीं , तृतीय में भी आंशिक रूप से ही ब्राह्मणवाद लग रहा
है ,क्योंकि युद्ध के अन्य कारण भी संभावित हैं
जिसका इतिहास मुझे ज्ञात नहीं | पर यह बात आई कहाँ
से ? मैंने तो कही नहीं ! To
Batohi
The
Prophet [peace be upon him]
*इस "दलित देश" ग्रुप में सब एक
ही जाति के लोग हैं,ऐसा समझें - उदाहरणार्थ सबके सब दलित अर्थात जतिमुक्त | इसलिए जातिवादी
बातें यहाँ न उठायें | ऐसा मैं सोचता हूँ,यद्यपि इसका दोषी मैं स्वयं भी हो जाता हूँ पर केवल सत्यवाचन और अनीति
विरोध के लिए | फिर भी ऐसे विमर्श में रूचि रखने वाले मित्र
कृपया 'काफी हॉउस' में जायँ,वहाँ मैं भी हूँ |
* ईश्वर एक
ढेर सारी समस्याएँ
बना अनेक |
* वैज्ञानिकता
स्त्रीलिंग है, विज्ञान
पुल्लिंग होगा |
* छुरा भोंकना
बाद में मित्र, अभी
गले तो मिलो |
======================= 20 / 8 / 2012 ========================
तिवारी जी की सीढ़ियाँ
यह घटना मेरे
सामने की नहीं है, इसे तिवारी जी ने बताई थी | जब वह पेपर मिल कालोनी में आये , उनका फ़्लैट पहली मंजिल पर था | एक सीधी सीढ़ी ऊपर जाती थी | वहाँ से बाएँ दरवाज़ा तिवारी जी के घर का था और
दायीं ओर किसी और का [नाम विस्मृत ] | पड़ोसी ने तिवारी जी से कहा कि सीढ़ी की सफाई के आधा पैसे मैं दूँगा आधा आप दे दीजियेगा | स्वाभाविक बात थी , लेकिन तिवारी जी तो तिवारी जी | उन्होंने कहा न मैं दूँगा न आप दीजिये , सीढ़ी पर झाड़ू मैं लगा दूँगा |
लेकिन मैं ठहरा
उलटी खोपड़ी का आदमी |
मुझे उनकी यह आत्मनिर्भरता समझ में नहीं आई | मैंने कहा आपने तो सफाई वाले के जो भी दस बीस
रूपये मुश्किल से देते वह भी मार लिए ! उसकी रोजी में बट्टा लगा दिया | क्या मेरा कहना
गलत था ? क्या एक दूसरे पर निर्भरता के साथ मानवीय तरीके
से नहीं जी सकता ? या क्या यह संभव है कि समाज में पूर्ण
आत्मनिर्भरता के साथ जिया जा सके ? या क्या बिल्कुल
अलग थलग जीना उचित है ? लेकिन उनका व्यवहार गाँधी जी का उन पर प्रभाव
के वजह से था | इसलिए
इन्ही प्रश्नों के
साथ मैं गाँधी जी पर भी आता हूँ | उन्होंने इसके लिए
बहुतों को बहकाया, अपनी पत्नी बा को भी झटका दिया , जिसके लिए नारीवादी महिलाओं को उनकी खूब फजीहत करते मैंने सुनी , और इसके लिए वे
गाँधी को कभी माफ़ करने वाली नहीं | इसके बावजूद दलित
तो उन्हें वर्ण व्यवस्था का समर्थक कह कर गाली देते हैं, उन्होंने अपनी ही तो टट्टी साफ़ की, दूसरे की तो नहीं ? जब कि मेरे आकलन के अनुसार उन्होंने अपनी टट्टी
साफ़ करके भी वर्ण व्यवस्था को चुनौती दी | क्योंकि इस काम को करने के लिए एक वर्ण उपलब्ध था | ज्यादा से ज्यादा वे कुछ बढ़ा कर मजदूरी दे
सकते थे | यही मेरा विचार बिंदु है | जब एक सामूहिक व्यवस्था थी तो उसका अतिक्रमण
क्यों किया उन्होंने | जब न वर्ण मिटने वाले हैं , न जाति जाने वाली है, तब इन्हें हटाने का प्रयास सिर्फ समय की
बर्बादी थी जैसा आजादी के बाद खूब हुआ और अब भी निष्फल
प्रयास जारी है | जबकि उसी व्यवस्था में बहुत कुछ बेहतर किया जा
सकता था जिसे हमने नहीं किया इस उम्मीद में कि यह ख़त्म हो जायगा | उसी व्यवस्था में यदि चौथे वर्ण को चतुर्थ
श्रेणी के सभी पद दे दिए जाते तो उसका बहुत भला हो जाता बनिस्बत इसके कि चतुर्थ
वर्ग में भी सभी जातियाँ आ गयीं, जो की उनके लिए सरल भी था | और कुछ बड़े पदों के लिए कुछ दलित कशमकश में आ
गए, जो उनके लिए बहुत कठिन था | इससे खाई बजाय कम होने के और बढ़ गयी | तब लोहार ही टाटा होता | चमड़े के काम के लिए केवल चमार ही अधिकृत होता
तो आज वह बाटा होता | धोबी के अलावा किसी को लांड्री का लाइसेंस न
मिलता | बर्तन केवल ठठेर बेंच सकते , पान की दूकान केवल तमोली , केवल दर्जी ही सिले सिलाये कपड़े का कारीगर होता तो सोचिये आज वह कितना
धनी होता |
"आरक्षित"
सबका व्यवसाय , सबके कार्य क्षेत्र होते , कोई किसी के काम में हस्तक्षेप न करता तो वह
बेहतर होता या यह जो मारामारी चल रही है | किसी का भविष्य
सुरक्षित नहीं है | तब बाज़ार भी इतना नुकसान न पहुँचाता | बुद्धिहीन तर्क है
कि ब्राह्मण हल क्यों नहीं चलाता ? इसी के बगल में
बैठे इस स्थिति को कोई नहीं देखता कि इस प्रकार हल का काम हल चलाने वाले के लिए
आरक्षित भी तो हो गया ? जो जिसका काम उस
पर उसका एकाधिकार | यही वजह थी जो वह व्यवस्था चली | आज वह व्यवस्था टूट भी नहीं रही है और सबका व्यवसाय भी छिन गया | ये बहुत गहन शोधन माँगते हैं, जब कि अंग्रेज़ी डिमाक्रेसी हमें कुछ किताबें
पढ़वा कर फ़ौरन विवाद कि ओर अग्रसर कर देती है | इस पोस्ट पर भी
यही होगा | आज की तारिख में यह सब ख्याली पुलाव ही है जो
मैंने लिखा | लेकिन तर्क तो है और सोचने , सोचते रहने में हर्ज़ ही क्या है ? कोई इस कान से सुने दूसरे से निकल दे |
फिर बात तो तिवारी
जी पर समाप्त होनी है |
हर सन्डे स्कूल का चपरासी राम प्रसाद आता ही था
घर की ख़ास साफ-सफाई करने के लिए | कुछ सहायता जय
प्रकाश करते ही थे थैंकलेस | अविवाहित थे तो
बुढ़ापे में तेज प्रसाद ने सेवा की ही अनुपकृत | साईकिल से चलने की
जिद में अनेक बार गिरे और चोट खाए | और एक एक पाई
कंजूसी से जोड़ बटोर कर जो उन्होंने लाखों रूपये बचाए उसके लिए तो मैं मुंहफट
झगड़ालू उन्ही से कह बैठा था - सूम का धन चंडाल खाए | फिर भी अपनी ज़िन्दगी अपने अनुसार जीने की
स्वतंत्रता सबको है | उनको भी थी , जिसे उन्होंने
जिया | हम तो सबक भर लेते हैं कि गाँधी बनने का पाखंड ढोने से क्या फायदा ? अनावश्यक बोझ ? और उससे कुछ हासिल होता हो ऐसा भी नहीं | साधारण आदमी की ज़िन्दगी यदि जी जाय तो क्या
बुरा है ? शायद वही अच्छा है |
धारा प्रवाह -
१९/८/१२
* मेरे अलावा यह बात कोई कह ही नहीं रहा है कि सब
ईश्वर की कृपा है | उसे वे भी मानते हैं और तुम भी | तो जो वे कर रहे हैं वह भी ईश्वर की अनुकम्पा
है , और जो तुम सह रहे हो वह भी अल्लाह की मर्जी है | उसे इसी तरह विनम्रता पूर्वक ग्रहण करो हे मानव
मात्र ! उसके निजाम में दखल मत दो , उसकी मर्जी के
बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता | [पेड़ भले ही
लडखड़ाए और धराशायी हो जाये ]
यदि यह बयान पसंद
नहीं आया तो क्या आपको अब भी नास्तिकता की ओर झुकाव नहीं हो रहा है ? आप इंसानियत के लिए अनीश्वर वाद के अब तो कायल
होंगे , या अब भी नहीं ? क्या आप को नहीं
लगता कि ईश्वर न होता तो कितना अच्छा होता - न उसके मानने वाले लोग होते न बलबे होते |
* क्या उन्हें नहीं पता, या उन्हें बताया नहीं जाना चाहिए कि यह इस्लामी
देश नहीं है ? क्या राज्य से यह माँग नहीं की जानी चाहिए कि
इनसे पूरी सख्ती से निपटा जाय चाहें वे जितना फिर चिल्लाते रहें ? या गेहूं के साथ कुछ घुन भी पिस जायँ ? इनके लिए मनुष्य के जीवन - जनजीवन के लिए कोई
जगह नहीं है , तो इनके भी मानवाधिकार तब तक के लिए निलंबित कर
दिए जायँ जब तक ये मानव न हो जायँ ? आज़म खान से
इस्तीफ़ा क्यों न माँगा जाय जो अपने नाम से यूनिवर्सिटी बनवा रहे हैं और मुसलमानों
के आरक्षण के लिए संविधान संशोधन माँग रहे हैं ?
* पत्रकारिता की कहें या राजनीति की एक और
निगेटिव भूमिका दिख रही है | अभी तक तो इस पर
यह आरोप था कि यह असली समस्याओं से ध्यान बंटाती है | अब नई बात यह है कि हम इसकी आंड में असली
समस्या से मुँह चुराते हैं | आज अख़बार का
प्रमुख शीर्षक है - " उपद्रव के पीछे सियासी दिमाग " | अब बताइए हमारा काम तो पीछे चला गया न ? जो हम कहना चाहते थे कि इसके पीछे "
दकियानूसी अन्धविश्वासी दिमाग " है | अब हम कैसे कहें , हमारा काम तो सियासत ने छीन लिया | उलटे धर्मगुरुओं की बन आई ,उनका रुतबा बढ़ गया | प्रशासन उनसे शांति की अपीलें करवाएगा जबकि
इन्हें पीछे ढकेल देना चाहिए और यदि ये उकसाने का काम कर रहे हों तो इन्हें भी
शालाखों के अन्दर | हम जनता अब इतनी तो भोली नहीं हैं कि यह मान
लें कि ये बिना उत्प्रेरणा के यह सब सुकर्म कर बैठे और इनके हाथों में छड़ और
छड़ियाँ वैसे ही प्रकट हो गयीं जैसे हिन्दू धार्मिक सीरियलों में देवताओं के कर
कमलों में | हमसे कोई सियासी
दल हमें बहका कर ऐसे काम क्यों नहीं करा पाती ? तो मामला था आस्था
-विश्वास का, मानसिकता का , बन गया सियासत का !
* प्रदीप शुक्ल को आर्डर मिला और उन्होंने राजस्व
परिषद् में कार्यभार ग्रहण कर लिया | हमारा बीरबल यदि
न्यायाधिकारी होता तो उनसे पूछता - इतने सालों से प्रशासनिक अधिकारी हो क्या
तुम्हे यह नहीं पता कि दो दिन जेल में रहने वाले को सस्पेंड कर दिया जाता है ? यदि सरकार ने गलती से नियुक्ति पत्र दे ही दी
तो तुम्हे क्या सरकार को उसकी भूल कि ओर चेताना नहीं चाहिए था, नियमों का हवाला नहीं देना चाहिए था ? तुम भी तो सरकार के सलाहकार ही हो | तुमने अपना फ़र्ज़ ठीक से नहीं निभाया और अपने स्वार्थ के लिए शासन को
अँधेरे में रखा इसलिए तुम्हारा अपराध और बढ़ गया | हमे ऐसे अधिकारी
की ज़रूरत नहीं है |
* लखनऊ के एक प्रचलित अख़बार का काम है सरकार से
कानूनों का मच्छिका स्थाने मच्छिका पालन कराना | तीन सवारियाँ बैठी मोटर साईकिल के चित्र छापती है
और हेलमेट विहीन | यातायात अधिकारियों को कोंचती है - वाहन चेकिंग और चालान क्यों बंद है ? कल अपना 'असर ' दिखाकर उसने खुर्रम नगर की पटरी पर
अस्थाई सब्जी बेचने वालों को नगर निगम द्वारा हटवा दिया |
* मूंदहु आँख कतहु कुछ नाही | यद्यपि यह कथन समस्याओं से मुँह मोड़ने की
आलोचना में है | लेकिन मैंने पाया कि वास्तव में भी इसकी कुछ
उपयोगिता बनाई जा सकती है समस्याओं के समाधान के लिए | कल दिवस के आख़िरी लम्हे कुछ सुकून के गुज़रे | दिल्ली के वयोवृद्ध मानववादी मित्र से फोन पर पीड़ा का आदान प्रदान हो रहा था | उन्होंने कहा अब ईश्वर को इग्नोर करने की ज़रूरत
है | जितना हम उसका विरोध करते हैं समझो उसे हम उतना
ही याद करते हैं | यही सलाह हमारे कुछ समतावादी मित्र भी जाति विभेद के
सम्बन्ध में देते हैं | यूँ मैं आश्वस्त
तो नहीं हूँ पर एक खुले दिमाग का वादा करने के कारण विवश हूँ आजमाने को | इसके पक्ष में एक तर्क तो दिमाग में उभरता है
कि यदि समस्या फेक हो अन यथार्थ , अवास्तविक हो जैसा कि ईश्वर और जाति निश्चित ही हैं , तो यह फार्मूला काम तो करना चाहिए | पर संदेह इसलिए है क्योंकि ये असत्य तो सत्य से
भी बड़े सत्य के रूप धारण किये हुए हैं | फिर भी मूँदा जाय आँख, देखा जाय कतहूँ कछु नाहीं होता है कि नहीं ?
* गाँधी को गालियाँ दिए जाने के सन्दर्भ में मैं
सूचित करना चाहता हूँ कि गाँधी हमारे असली बाप नहीं थे | वह तो किसी ने , शायद सुभाष जी ने
उन्हें कह दिया और वह देश के राष्ट्रपिता नियुक्त हो गए तो हम भी कहने लगे | जैसे देखिये पड़ारकर जी ने भारत के प्रेसिडेंट
के रूप में एक घटिया शब्द राष्ट्रपति तय कर दिया और हम मानने लगे | फिर भी यदि विवश किया जाय तो गाँधी को वाकई हम
अपना बाप मान सकते हैं | तब जो उन पर गालियाँ आयद हो रही हैं वे भी एक
आधार पा जायेंगी | यदि गाँधी सचमुच नालायक न होते तो हम भारत की उनकी औलादें इतनी नाकारा कैसे पैदा होते ?
* भारत में हिन्दू मुसलमान दो धर्म नहीं बल्कि एक
धर्म दो जातियों के रूप में हैं | लेकिन एक जाति
जहाँ मोहम्मद साहेब के कार्टून और म्यांमार की हिंसा के विरुद्ध एकताबद्ध हो तोड़
फोड़ का प्रदर्शन कर सकता है , दूसरा इनके विरोध
में कुछ नही कर सकता क्योंकि वह दलित से लेकर ब्राह्मण तक शत्रुता की सीमा तक
विच्छिन्न और विभक्त रहने के लिए अभिशप्त है |
* यह तो अद्भुत ही परिभाषा आ गई जातिवादी की | अभी तक सामान्य समझ यह थी कि जन्म के आधार पर जो किसी अन्य को
निम्न समझे तथा जन्म के नाते ही स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ समझे वह जातिवादी होता
था | अब विशिष्ट मापदंड यह लाया जा रहा है कि जो
दलित के पक्ष में हो
वह जातिविरोधी और
जो ब्राह्मण के पक्ष में हो वह जातिवादी | भले वह दलित कितना ही ब्राह्मण हो और वह
ब्राह्मण कितना भी दलित | चलिए साहब यह भी ठीक , पर तब क्या होगा जब पूरी तरह दलित के पक्ष में
खड़े ब्राह्मण को इसलिए धकिया कर बाहर कर दिया जायगा कि हट ब्राह्मण तू जन्म से
ब्राह्मण है और तुमने कुछ स्वानुभूत नहीं किया , केवल सहानुभूति
में बोल रहा है | इसलिए उलझाने से अच्छा है सरल भाषा में मान
लिया जाय कि ब्राह्मण शाश्वत ब्राह्मण है और दलित शाश्वत दलित | कुछ भी बदलने वाला नहीं है | जो कुछ किसी में मानसिक बदलाव आये उसे वह अपने मन में रखे , व्यवहार में उतारे
लेकिन अपनी शाश्वत जातीय पहचान के साथ |
* मैं हारने वाला जीव नहीं हूँ | मैंने अपना सुकून
तलाश लिया | चंचल सिंह और अम्बरीश सिंह दोनों कायस्थ हैं | बहुत से कायस्थ अपना उपनाम 'सिंह ' लगाते हैं | और संदीप वर्मा , रूपरेखा वर्मा की भाँति कायस्थ हैं ही ! मेरी
कौम में इजाफा लगातार है |
* फिर गड़बड़ | यहाँ तो सारे कुएँ
में भाँग पड़ी है | मैं या तो काफी हॉउस छोड़ कर भाग जाऊँ या यदि कोई बचाए नहीं तो कल ईद के दिन मैं बकरा ईद हो जाऊँ | अरी मेघना जी, प्रेमचंद ने कोई ' मुस्लिम ' त्यौहार का वर्णन नहीं किया | वह तो प्रतीक था , कोई भी मेला हो सकता था | उल्लेखनीय था हामिद का अपनी माँ के लिए चिमटा
खरीदने के अहसास | महत्वपूर्ण थी बाल मन की कोमल अनुभूति |
* हे भगवान , मैं आपको कौन सी
सज़ा दूँ कि आपमें सुधार आये ? अभी डांटे पूरा दिन भी नहीं बीता आपने फिर बता दिया एक व्यक्ति की जाति !
नीलाक्षी की जाति बताने को किसने कहा था ? और आप ? जाति छोड़ कर कहाँ जायेंगे ? पूछिए संदीप बाबू से, कोई ठौर है आपका कोई अलग जातिविहीन ? आपको किसी न किसी तरफ जाति में ही रहना है, दलित या ब्राह्मण | यह जाति है जनाब, कोई नौकरी नहीं कि आप छोड़ दें और वह चली जाय |
======================== 19 / 8 / 2011
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