* निहत्थे :- अन्ना कुछ
बूढ़े थे और पढ़े लिखे भी कम थे , इसलिए शायद उन्हें अरविन्द केजरीवाल की पूरी योजना समझ में नहीं आई | तो अब उनकी जगह पर
कुछ युवा और ज्यादा विद्वान योगेन्द्र यादव आ गए हैं | कल बड़े कायदे से
माइक को समझा रहे थे -' निहत्थे लोगों पर - - ' | मैंने उनका यह शब्द पकड़ लिया | निःशस्त्र कहते तो
बात ठीक होती , पर उनकी भीड़ अपने हाथों-रहित कहाँ
थी ? सबके पास लगभग दोनों समूचे हाथ थे | और इन हाथों की
ताक़त ? - - गलत अंदाजा लगा रहे हैं योगेन्द्र | हाँ , यदि वह यह माँग
करते तो उसमे दम होता कि पुलिस वालों को इनसे सामना करने से पूर्व अपने दोनों हाथ
कटवा कर निहत्थे ही उनके सामने जाना चाहिए था |
* प्रिय संपादक (नागरिक विद्रोह) : - सम्प्रति उग्रनाथ नागरिक के
विचार | विशेषतः धर्म और राज्य के सम्बन्ध में
परिवर्तनकारी योजनाएँ एवं व्यावहारिक कार्यक्रम |
* लोग बड़ा विरोध करते हैं जाति नाम हटाने का | मित्र समर अनार्य का नाम क्या मूल से कुछ बदला
हुआ नहीं लगता ? दलित विमर्शकारी तमाम चिंतकों , लेखकों के नाम ऐसे ही लगते हैं - कँवल
भारती तो बहुत मशहूर हैं |
* जनता भी क्या चीज़ है
भारत की !
कभी केजरीवाल बन
जाती है ,
कभी अन्ना , लेकिन
क्यों नहीं होती
है
यह कभी अपना ?
* मोहब्बत अभी
भी गज़ब की चीज़
करके देखो |
* मैं जानता हूँ
मनुष्य लिखता हूँ
मैं कविता में |
* नशा तो है ही
कविता का नशा है
मुझे नसीब |
* स्वार्थ के खानें
कब बंद होंगी ये
गंदी दुकानें ?
* मैं चौंका ऐसे
जैसे शांत एकांत में
बैठे व्यक्ति के कान में
पीछे से आकर कोई
एकाएक जोर से बोल दे
-
आदमी चौंक जाता है |
लेकिन तुमने तो बस
अपने होंठ धीरे से
हिलाए भर थे !
#
* अब कुछ पुराना बोलो ,
उल्टी बात है न ?
लोग तो नया विचार ,
नई अवधारणा जानना
चाहते हैं
और मैं पुराना
सुनना चाहता हूँ !
सचमुच ऊब गया हूँ
नई बातों से -
कभी यह वाद - कभी
वह वाद
वाद - विवाद की
अंतहीन श्रृंखला से ,
मन खट्टा हो गया
है
नए नए आंदोलनों और
क्रांति की भ्रांतियों से |
कुछ पुराना, दकियानूसी शब्द सुनने को
कान तरसते हैं
हमारे ,
ज्यादा कुछ न याद
हो तो
सोचो बस एक ही शाश्वत प्राचीन वाकया
बोल दो वही वाक्य मूर्खता का , घिसा पिटा-
जिसे कितनों ने कितनों से तो कहा ,
बार - बार दुहराया
शकुंतला ने दुष्यंत
से ,
राँझा ने हीर , लैला ने मजनू से ,
सोहनी ने माहवाल
से =
' मैं तुम्हे प्यार करता या करती हूँ ' |
वही पुरानी बात
कहो
अमानुस हो गया हूँ
नई चर्चाओं से
हृदय कलुषित हो
गया है
पुरानी आग जलाओ
मुझे पिघलने दो | #
* झगड़ा तो बहुत है
हम पति पत्नी के बीच
लेकिन क्या करें ,
झगड़ा निपटाएँ या
छुटकी को लेकर
अस्पताल जाएँ
और बड़के को
स्कूल पहुँचाएँ ? #
* मेरा गाँव बस्ती [ सिद्धार्थनगर ] के हल्लौर कस्बे के निकट है | यह शियाओं का बहुत बड़ा गाँव है और यहाँ का
मुहर्रम बहुत मशहूर | मुहर्रम में लोग बाहर से अपने घर इस अवसर पर
अवश्य आते हैं | एक बार कि दुखद घटना थी कि एक इंजीनियर
युवा छुरियों से मातम करते दम तोड़ गया था | लेकिन जो बात
इंगित करनी है वह और है | मुझे याद है कि एक से लेकर दसवीं मुहर्रम तक
गाँव के तमाम बच्चे , कभी कभी मैं भी पूरी रात रात भर हल्लौर में टहलते थे, और हमारे वालदैन को इसकी तनिक भी चिंता न होती थी कि लड़का हल्लौर गया है | आज खबर मिली कि जुम्मे के दिन वहाँ भी हिंसक
माहौल बना और कर्फ्यू की स्थिति | मानना पड़ेगा अब हम
ज्यादा सचेत , शिक्षित, सभ्य, जागरूक धार्मिक हो गए हैं | पर्याप्त प्रगति की हमने |
* मुझे लगता है , आज़ादी की माँग ही
घातक हो गई | अब मैं अपना मनोविज्ञान समझ पा रहा हूँ कि
क्यों मैं गाँधी सुभाष , चंद्रशेखर , भगत सिंह को उनके
कार्यों और बलिदानों के लिए पर्याप्त आदर नहीं
दे पाया , और न स्वतंत्रता - गणतंत्र दिवस को ही प्रमुदित
मना पाया ? अंग्रेजों के अधीन सभी सही थे | आंबेडकर गलत नहीं कहते थे | आज़ादी के बाद सबको परेशानी ही परेशानी है | दलितों को परेशानी है , मुसलमानों को परेशानी है | किसी को उसका हक मिलता प्रतीत नहीं होता , और सब आन्दोलन रत हैं |
* [
NEW FANS CLUB ] मैं फ़िल्मी नायक -
नायिकाओं को क्यों घास नहीं डालता ? क्योंकि उनका काम
बहुत आसान है | हमारे BNA [ भारतेंदु नाट्य अकादमी ]
के नए नए क्षात्र भी बखूबी कर लेते हैं | मैं उन मजदूर स्त्री पुरुषों का फैन हूँ जो
कठिन काम करते हैं | जिसे महा नायक नहीं कर सकता , और हमारी किसी मजदूरनी नायिका को देखिये, वह किसी भी विश्वसुन्दरी को मात दे सकती है |
* [
चिड़िये की आँख ] = मेरा प्रस्ताव है कि बंद हो जानी चाहए हड़तालें
, छात्र संघ , ट्रेड यूनियनें , धरना घेराव आन्दोलन और साथ ही अंग्रेजी
डिमाक्रेसी के सभी लटके झटके - प्रेस की आज़ादी , RTI , RTD , लाल नीली बत्तियों वाली गाड़ियाँ , A - Z सुरक्षा , विधायक - संसद
निधि , विशेषाधिकार | सब स्थगित कर दिए
जाने चाहिए तब तक के लिए जब तक कि दलितों को पूर्ण आर्थिक - सामाजिक न्याय नहीं
मिल जाता | यदि सचमुच यह गंभीर समस्या है तो देश को तमाम
तरफ से ध्यान हटा कर केवल चिड़िये की आंख पर केन्द्रित करना चाहिए |
* जब सिकंदर ने पोरस को माफ़ किया था [ जैसा एक
राजा को एक राजा के साथ करना चाहिए ?]
| तब उसने एक राजा के गुण व आदर्श का प्रदर्शन
किया था | इसी तरह मेरे भी मन की यह अभिलाषा है कि भारत
के दलित भी राजा की भूमिका में आयें और तदनुसार व्यवहार करें | वे करके दिखाएँ कि वे राजधर्म के सर्वगुण
संपन्न और राज्य कर्म के सर्वथा सुयोग्य हैं | वे अपने दुश्मन ब्राह्मण को मुआफ करने का माद्दा रखते हैं |
* यह तो अच्छा है | कहा जाये कि जुमा के बलबाई मुसलमान नहीं थे | फिर उनके साथ सख्ती से निपटने में क्या दिक्कत है ? पुलिस उनसे डरती
क्यों है कि तमाम विडिओ फुटेज होने के बावजूद उसने एक भी गिरफ्तारी अब तक नहीं की ? जबकि अपराधियों ने सार्वजानिक संपत्ति के
नुकसान के साथ साथ सांप्रदायिक सौहार्द्र भी बिगाड़ने की कोशिश की और धार्मिक
भावना को भी क्षति पहुँचाई | यदि आहत वर्ग भी
डेनमार्क के कार्टून के विरोध में मुसलमानों के जैसे प्रदर्शन पर उतर आती तो पुलिस क्या करती ? गनीमत थी कि वे बौद्ध और जैन थे | फिर भी इन स्थितियों में उनके मन में यह खतरनाक बात तो आ ही सकती है कि काश हम भी हिंसक होते ?
* भ्रष्टाचार विरोधी छिछले आन्दोलनों ने ईमानदारी
जैसे महान मूल्य को बहुत हल्का बना दिया |
* दलित क्यों न दलित चेतना से मुक्त हों ? हम भी तो सांप्रदायिक चेतना से परिपुष्ट हैं ?
* दलित नाम सचमुच अपमानजनक है किसी के लिए भी | कोई अपने लिए ऐसा गन्दा नाम कैसे स्वीकार कर
सकता है ? जैसे किसी को कोई गन्दा - गंधाता बदबूदार कुरूप कह दे और वह उसे स्वीकार कर ले ! इससे कहीं अच्छा तो हरिजन था और अभी भी गाँव
में सुनने को मिल जाता है कि अमुक हरिजन भाई हैं | आन्दोलन वाले कुछ भी कहें दलित शब्द उनके
संबोधन के लिए समाज में प्रचलित नहीं है, लोग उन्हें उनकी
खास जाति से जानते हैं कुछ दलित कानून लोगों की जानकारी में हैं | पर यदि गाँधी से शाश्वत चिढ़ के कारण हरिजन ग्राह्य नहीं है तो जैसा
अन्य दोस्त सुझाते हैं मूलवंशी ज्यादा ठीक है | फिर एक टायटिल है - अनार्य | पर इसमें गंभीर
दोष यह है कि यह आर्य के जस्ट विपरीत खड़ा हो जाता है जिसका अर्थ होता है श्रेष्ठ | तो क्या ये अश्रेष्ठ हैं ? थोराट साहब ने इसके लिए SC / ST नाम शायद सुझाया है | पर यह तो सरकारी सूची है | सामाजिक नाम क्या हो बड़ा जटिल मामला है | इसलिए दलित ही ठीक है जैसा इनके बुद्धिजीवियों
और नेताओं ने चुन रखा है | सवर्ण लोग अलबत्ता उन्हें हरिजन पुकार सकते हैं
और इस पर यदि हरिजन कहें कि क्या तुम हरिजन नहीं हो तो वह कह दे कि नहीं, हम राक्षसजन हैं | इससे एक काम और हल हो सकता है कि पुकारने वाला
सवर्ण जान लिया जायगा जैसा कि दलित धुरंधर चाहते हैं |
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
* मेरे विचार
से HUMANISM का हिंदी में सही अनुवाद = " मानव पंथ " , और HUMANIST का मानव पंथी होगा , मनुष्य आधारित नैतिकता को जीने वाला संप्रदाय |
* अब दो धर्म बनते हैं मनुष्य के | जैसा वी एम तारकुंडे ने महात्मा गाँधी पर लिखते
हुए उसका शीर्षक दिया था = SECULAR AND RELIGIOUS MORALITY | उसी तरह दो धर्म मनुष्यों द्वारा धारण किये
जायेंगे | सारे किताबी , ईश्वरवादी , परलोकवादी धार्मिक नैतिकतावादी होंगे , और नास्तिक इहलोक वादी , बुद्धिवादी , विज्ञानवादी , लोग
सेक्युलर होंगे |
*
दूर की कौड़ी
लाया आप के लिए
यह लीजिये |
* समझने की
मैंने कोशिश तो की
तो समझा भी
* हम आज हैं
आज की लिखते हैं
कल रहे तो - - |
* गुलदस्ता है
भेजा होगा
उन्होंने
जिन्होंने भेजा |
* जैसा दिखते
वैसा वह हैं नहीं
बहुत फर्क |
* दोनों आदमी
क्या सभी तो आदमी
तनाव में हैं |
* बरसात है
चलिए बचाकर
गड्ढे तमाम |
* अनजाना सा
लूटकर जायगा
कोई आदमी |
* समस्त जन
नई दिशा देते हैं
स्वयं भ्रमित |
* चोटी रखते
कितने लोग अब
कहाँ ब्राह्मण ?
* अब मुझको
कोई नहीं पूछेगा
साँकल बंद !
* आना तो तुम्हे
मेरे पास पड़ेगा
अभी घूम लो |
अभी घूम लो |
* करना होगा
इंतज़ार, शाम से
सुबह तक |
* असंभव ही
सोचते तो हम भी
यथा संभव !
* मैं अन्ना हूँ , मैं
अरविन्द - किरण
भी हो जाऊँगा |
======================== 27/8/2012
=========================================
* धर्म के स्थान पर लोग भारतीय , भारतीयता Indianism आदि लिखते हैं | उनकी भावना
सराहनीय है | पर यह तो राष्ट्रीयता का नाम हैं | धर्म का तो
सर्वभौमिक Universal
नाम धार्मिक Religious ही उपयुक्त है | जब तक हमसे हमारा
धर्म पूछा जाता है |
* मानववाद से सम्बन्ध रखता, प्रेम करता हूँ | मानव से ज्यादा
लपझप रखने का नाटक नहीं करता |
* मैं अपने पैड या विजिटिंग कार्ड के लिए अपना
परिचय बना रहा था | मनई / आदमी / मनुष्य / इंसान / Human being |
* भगवान ने तो हमें जानवर के रूप में बनाया और
पृथ्वी पर भेज दिया | आदमी बनना तो अब हमारा काम है , हमारे जिम्मे !
* जाति, धर्म वगैरह तो दूर की बातें हैं | मुझे तो अपने मिलने वालों के नाम तक याद नहीं
रहते !
* प्रेम कल्पना लोक , स्वप्न संसार है | जबकि विवाह ज़िन्दगी का यथार्थ | यथार्थ में सपने नहीं चलते | अच्छा हुआ जो मेरा सपना यथार्थ में नहीं तब्दील
हुआ |
* मैं कोई सौन्दर्य प्रसाधन इस्तेमाल नहीं करता | यहाँ तक कि दाढ़ी बनाने के लिए भी शीशा देखने की
ज़रुरत नहीं होती मुझे | पर नहाने के बाद अगल बगल थोड़ा पावडर लगाने की
आदत है मेरी | क्या यह विलासिता की श्रेणी में आता है ?
* औरतें सुंदर तो बहुत होती हैं | अच्छी भी लगती हैं | लेकिन दुःख बहुत देती हैं |
* किसी को याद है मुमताज को शाहजहाँ से कितने
बच्चे जनने पड़े थे ? शायद दर्ज़न भर | यह प्रेम विवाह का
नतीजा था | भुगतना ज्यादा तो मुमताज को पड़ा | थोड़ा शाहजहाँ को भी ज़रूर, ताजमहल तीमार करवाने में |
* यह अकारण नहीं जो
कबीर आदि गुरुओं के संप्रदाय अपने शिष्यों के , ओशो के चेलों आदि के मूल नाम , केवल उपनाम नहीं , समूचे ही नाम बदल दिए जाते
हैं | यह सूचना उनके लिए है जो कहते हैं नाम बदलने से क्या होता है | वैसे उनसे यह सब बताने और
मनोवैज्ञानिक तर्क देने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे बड़े जिद्दी लोग
हैं | उन्होंने अपने दिल - दिमाग के
दरवाजे बंद कर रखे हैं , फिर भी भ्रम में
रहते हैं कि वे बड़े भारी विचारक हैं | इन्हें जब किसी का
कुछ नहीं सुनना, तो इन्हें और क्या कहा जाय ? विचारणा की पहली शर्त - खुले दिमाग
का होना, ही ये पूरी नहीं
करते | और जो कुछ विचारशीलता है भी उसे इनकी राजनीति प्रियता ने छीन रखा है |
* जब मैं कहता हूँ
मैं कवि नहीं हूँ तो लोग समझते हैं मैं विनम्रतावश ऐसा कह रहा हूँ जब कि ऐसा नहीं
है | मैं भी सचमुछ छंद को ही अभी कविता मानता हूँ जो
मैं नहीं कर पाता | कविता के कुछ तत्व होने और बात हैं , पर छंदों की तो बात ही और है | उनका कहना ही क्या , अलबत्ता यदि कोई उन्हें बनाना चाहें और जाने | छंदों में कविता का अभाव होता है इसलिए हम जैसे
अकवियों की बनी है | तथापि हमारी रचनाओं को कोई और नाम दिया जाना
चाहिए | इसे पचौरी जी सदृश्य विद्वान बता सकते हैं |
* घटनाओं के विडिओ बनाते रहिये और सेमिनारों की
रिकार्डिंग | एक din ये फिल्म बनाने में काम आयेंगे और आप समांतर
सिनेमा के विख्यात फिल्मकार हो जायेंगे |
*धन्यवाद उज्जवल जी , प्रशांत एवं अभिषेक जी | जनवार जी, जान बूझ कर पहला पोस्ट यहाँ लगाया जो मेरे जिंदा रहने के प्रमाणपत्र के रूप में काम आये, और पब्लिक मुझे मारने भी न दौड़े | यूँ मैं बगल के प्रिय संपादक या उग्र नागरिक के चाय के ढाबे पर लगभग दिन भर रहता हूँ | जब बुद्धि का अतिरेक हो जाय, उस पर गर्व या बौद्धिक शून्यता का एहसास, तो कभी मित्र वहाँ भी आ सकते हैं | यहाँ हार्दिक हलचल और जोश खरोश मिलेगा | अरे यह कोई विज्ञापन तो नहीं हो गया ? नीलाक्षी जी इसे डिलीट कर दें, पर वह कोई व्यावसायिक संस्थान तो नहीं है !
* प्रेम करना
मेरी कमजोरी है
अशक्त हूँ मैं |
* अभी जीना है
बहुत जीना मुझे
देश के लिए |
* कम बोलना
बेहतर तो है ही
वाचालता से |
* फर्क होता है
मियाँ मिट्ठू बनने
और सच में |
* बिना हास्य के
चिंतन असंभव
विचारक जी !
* बिना हास्य के
न गंभीर चिंतन
न जीवन ही |
* वही विचार
जितना लिख पाया
शेष कबाड़ |
* हर विचार
आरक्षण सहित
होता है मेरा |
* होती हैं बातें
मन में रखने की
कुछ तो सही |
* भेदभाव है
तो भेदभाव रहे
हम क्या करें ?
* न्याय - आग्रह
कहीं नहीं दिखता
किसी में नहीं |
* लखनऊ , हिंदुस्तान दैनिक
२४ अगस्त २०१२ , पृष्ठ - १४ , लेखक - भारत
डोगरा शीर्षक =
"
हिंसा और नफरत पढ़ाती किताबों के मारे
बच्चे " [ ये लेखक के अपने विचार हैं ] संक्षिप्त
उद्धरण :-
पिछले दिनों लन्दन
में ' डेमोक्रेसी फोरम ' द्वारा आयोजित एक सेमिनार में पाकिस्तानी
वैज्ञानिक डा परवेज़ हूदभाय ने कहा कि पाकिस्तान के स्कूली पाठ्य पुस्तकों, विशेषकर सीमावर्ती इलाकों में ऐसे पाठ मिल
जायेंगे | जैसे गणित की एक पुस्तक में यह सवाल पूछा गया
है , '
एक रायफल की गोली की स्पीड ८०० मीटर प्रति
सेकंड है | एक मुजाहिद एक रूसी फौजी के सर को निशाना बना
रहा है | यह फौजी ३,२०० मीटर की दूरी
पर खड़ा है | बताओ, मुजाहिद द्वारा
चलाई गई गोली रूसी फौजी के सिर तक कितने सेकंड में पँहुचेगी ?' - - - - पाकिस्तानी शिक्षा मंत्रालय के एक दस्तावेज़ में
१९९५ में यहाँ तक कहा गया था कि कक्षा ५ तक के बच्चों को हिन्दू - मुस्लिम का भेद
अच्छी तरह से समझ में आना चाहिए | उन्हें जेहाद व
शहादत पर भाषण देने आने चाहिए | - - - -- - - - - - - -
|
* बहुत ताक़तवर मत बनो | जो ताक़तवर होते हैं उन्ही पर खतरे की घंटी
मंडराती है | वही खतरे में पड़ते हैं | बड़े - बड़े धनिकों - बाहुबलियों को देखिये | आधी ज़िन्दगी तो उनकी अपने प्राण रक्षा में
बीतती है | इसीलिये वे राजनीति में आकर ए - जेड सुरक्षा
हासिल करते हैं | मुसलमान भी बड़े उग्र और सशक्त बनते हैं तो उन्ही का धर्म सबसे ज्यादा खतरे में है | इसलिए बेहतर है हरे हरे दूब घास की तरह रहो |
* यदि जिन्ना से घृणा भी करते हो तो भी माओ के अनुसार ' अपने को समझो और
अपने दुश्मन को भी समझो ' |
* गाँधी आंबेडकर नेहरु के चक्कर में हम एक सख्श
को बिल्कुल ही भूलते नज़र आ रहे हैं जिसने , सकारात्मक कहिये
या नकारात्मक, भारतीय राजनीति में बड़ी महत्त्वपूर्ण और प्रभावी भूमिका निभाई | वह हैं मरहूम जनाब मोहम्मद अली जिन्नाह | मुझे तो मेरे राजगुरु जैसे लगते हैं वह | एक तो , क्योंकि वह
नास्तिक थे | वह कोई दकियानूस . पाखंडी व्यक्ति नहीं थे | पता नहीं क्या क्या खाते पीते थे, नमाज वगैरह के पाबंद न थे और बिल्कुल आधुनिक
तथा प्रगतिशील थे | दूसरे उनकी बौद्धिक-राजनीतिक ईमानदारी ने मुझे
बहुत प्रभावित किया , गाँधी की अहिंसा की तरह | बल्कि अहिंसा तो कुछ अस्पष्ट भी है, जिन्ना की सत्यनिष्ठा बिल्कुल स्पष्ट थी, आईने की तरह | उन्होंने सत्य के साथ कोई घालमेल का प्रयोग
नहीं किया, सीधी सपाट बात कही | उन्हें लगा , उन्होंने समझा कि
हिन्दू मुसलमान इन इन तमाम कारणों से एक साथ नहीं रह सकते, तो उन्होंने बेलाग बेलौस वही बात कही | भारतीय नेताओं की तरह कोई सांप्रदायिक
सौहार्द्र का लल्लो चप्पो नहीं लपेटा | अब देखें कि उनकी
बात सही थी या नहीं ? बिल्कुल सही थी | इसकी काट में जो
आज सेक्युलर लोग प्रचारित करते हैं कि दोनों का गंगा जमुनी संस्कृति के साथ
सहजीवन का हज़ार वर्षों का इतिहास है, उनकी सदिच्छा तो सराहनीय और सदाशयता काबिले तारीफ है | लेकिन अपनी इच्छा पूर्ति के लिए समूचा न सही पर थोड़ा झूठ अवश्य बोलते हैं | ये लोग यह बताना गोल कर जाते हैं कि ये समुदाय
किस काल खंड में एक साथ रहे ? इन्हें जोड़ना
चाहिए कि तब इनके ऊपर या तो मुगलों का या अंग्रेजों का शासन था | तब या तो मुसलमानों का शासन था या फिर ये गुलाम
थे | तब वे अपनी स्वाभाविक चारित्रिक जीवन
नहीं जी सकते थे इसलिए साथ रहे | आपातकाल में, बाढ़ में तो साँप
और मनुष्य भी एक साथ एक पेंड पर रहते हैं | तब उन्हें एक
दूसरे से कोई खतरा नहीं रहता | लेकिन खतरा हटते
ही एक दूसरे के दुश्मन हो जाते हैं | जिन्ना के सामने
गुलामी के हालात नहीं थे | वह आज़ादी के बाद की स्थिति से रूबरू थे | तब वह झूठ नहीं बोल पाए, और बता दिया - साथ नहीं रह सकते | हमारी आजादी के बाद इन दोनों के सहवास की दारुण कथा जिन्ना को सत्य ही प्रमाणित करती है | एक कथन है कि - जब तक मुसलमान अल्पसंख्यक होते हैं तब तक तो सेक्युलरिज्म चिल्लाते हैं पर बहुसंख्यक होते ही - 'निजाम - ए -
मुस्तफा' !
यह पंक्ति साधारणतः कथनीय- उल्लेखनीय नहीं होनी
चाहिए लेकिन यह जिन्ना का नक़्शे - क़दम है जिसके बल पर मैं इतना सत्य लिख पाया | कहना होगा कि हिन्दू समुदाय की भी ऐसी ही
विसंगतियाँ और विद्रूप हैं | इसलिए हम किसी समुदाय को सही और दूसरे को गलत कहने के कगार पर कतई नहीं है | यह इनका स्वभाव ही
है, जैसा जिन्ना ने बताया | ऐसे जिन्ना को नकारना और भूलना क्या भारत की
सत्यप्रियता के साथ मजाक नहीं हुआ ? क्या इसलिए कि
सामुदायिक सत्य के प्रति उनकी जिद से पाकिस्तान रूपी ऐसा परिणाम निकला जो हमें नापसंद या हमारे लिए
हितकर न था, उसकी अपने संप्रदाय की लडाई में योगदान की इस
क़दर उपेक्षा कर दी जाय कि उसकी याद भी न आने पाए और उसके
विषय में लाल कृष्ण अडवाणी और जसवंत सिंह कुछ सत्य बोल दें तो हम उन पर बिफर पड़ें ? यह तो हमारा अनुचित व्यवहार है | बस यहीं यह उल्लेख
कर दें कि यही हिन्दू का पाखंड है जो इसके सर पर चढ़ कर बोलता है -
अन्दर सत्य बाहर असत्य या मन में असत्य तो प्रकट में सत्य | और इसकी इसी कपटता ने इसे कहीं का न छोड़ा | देखिये आज भी यह जिन्ना का सत्य वचन मान कर
नहीं दे रहा है कि 'हम साथ नहीं रह सकते '| यह अब भी विश्व बंधुत्व वगैरह का पुराना राग
अलापे जा रहा है, सत्य के विपरीत | अपने दलितों अछूतों के साथ तो समता पूर्वक रह
नहीं सकता और - - - तमाम छद्म के साथ जी रहा है यह | देख सकते हैं कि
नेहरु [इंदिरा ]
की धर्म निरपेक्षता एक छद्म निरपेक्षता ही
साबित हुई | जब की जिन्ना के
साथ ऐसा नहीं हुआ | उसने इस मुद्दे पर भी सत्य का साथ निभाया | पाकिस्तान बनने की लक्ष्यपूर्ति के फ़ौरन ही बाद
प्रथम संभाषण में उसने ऐलान किया कि अब सबको धार्मिक आज़ादी है | हिन्दू निर्भय होकर अपने मंदिर जा सकेंगे , अपनी आस्था का पालन कर सकेंगे - - | क्यों ? कुछ समझा आपने ? क्योंकि वहां इस्लामी शासन होना था | अलग कहानी है कि
जिन्ना का वह सेक्युलर सपना उनके असामयिक मृत्यु के कारण पूरा न हो सका | पर जिन्ना ने न तब
झूठ बोला था न अब झूठ बोला था | पाकिस्तान में यदि
सचमुच इस्लामी शासन होता तो हिन्दू निश्चय ही ससम्मान रह सकते थे, जैसे मुगलों के अधीन रहे थे | लेकिन वहाँ भी तो कथित डिमाक्रेसी आ गयी ! और
वही कथित ही आ गयी हिन्दुस्तान में भी | और हम जिन्ना की लय पर सत्य नहीं बोल सके कि हम साथ नहीं रह सकते | हम हिन्दू / दलित / बौद्ध / सिख राष्ट्र हैं और
इन्ही के राज्य में भारत के मोअज्जिज़ मेहमान की तरह मुसलमान चाहें तो निर्द्वंद्व अपने मज़हब का पालन कर सकते हैं | वह तो दूर था | पाकिस्तान के
इस्लामी राज्य बनते ही फ़ौरन पलट कर, उसके विलोमतः हिंदुस्तान यह तक नहीं कह पाया कि भारत एक गैर इस्लामी , नॉन इस्लामिक स्टेट है |
* जाही विधि राखें लोग
तो हमारे प्रिय
संपादक के राजनीतिक साथियो, हम इस बात पर 'एकमत ' (पार्टी ) हो जाँय कि चाहें जितना नाम जोड़ो , चाहें जितना हटाओ, हमें अपने जाति के साथ ही रहना और काम करना है | एक बौद्धिक समूह
की माननीय महिला सदस्य ने अपने मित्रो का एक आयोग तक कायम
कर डाला कि यदि वह कहे तो वह अपना जातिगत उपनाम हटा देंगी | ज़ाहिर है मित्र आयोग ने उन्हें ऐसी सलाह नहीं
दी | इसलिए हमें भी ऐसे विमर्श का लाभ उठाना चाहिए
और सरनेम हटा कर जाति छोड़ने का उपक्रम और दावा करने का दंभ बंद कर देना चाहिए | लेकिन अब तो हमारी चुनौती हमें और तेज ललकारती है | सचमुच मजा तो तब है जब हम अपने तमाम जातीय
पुछल्लों और पहचानों के साथ जातिवाद से मुक्त -मानस बनें | एक लिहाज़ से यह और भी उचित है | क्योंकि हमारा थोड़ा अधिक ध्यान इस अंदरूनी मसले
पर कम और हिन्दू - मुस्लिम मसलों पर ज्यादा है जहाँ नाम से ही सब कुछ स्पष्ट हो
जाता है | तो फिर यदि भारतीय जातियों की भी पहचान उसके
नाम से हो जाती है तो इसमें परेशानी की कोई बात तो नहीं होनी चाहिए ? इसलिए आइये उसी के साथ काम आगे बढ़ाएँ | उसमे उलझ कर अपना
समय न गवाँए |
* सन्ती
मैं अवध के गाँव
का रहने वाला हूँ | मतलब २५ वर्ष का आरंभिक बाल - संस्कार मुझे
गाँव से ही मिला | अभी भी मैं घर में , कम से कम पत्नी से तो निश्चित ही , देहाती भाषा में बात करता हूँ | उनसे मेरा संवाद तभी पूर्ण होता है | इसी सन्दर्भ में
इधर एक शब्द ध्यान में आया - 'सन्ती' | इसका अर्थ होता है - लिए , की तरफ से , के एवज़ में | मैं इसे लिखकर नहीं समझा सकता | यह हमारे प्रयोग की भाषा है और इसे प्रयोग में
ही हम समझते हैं | जैसे बचपन की एक मुराही याद आती है | कोई कहेगा - 'हे पेसाब करै जात
हौ , तनी हमरौ सन्ती किहे आयो हो' | क्या सन्ती का कोई सटीक पर्याय हिंदी या
अंग्रेज़ी में है ?
* क्या यह, सरकारी न सही असरकारी, तानाशाही नहीं है कि दस बीस लोगों ने बैठ कर तय
कर लिया , और भारत वर्ष के बैंक दो दिनों के लिए बंद हो
गए ?
* संविधान में प्रोन्नति में आरक्षण क्यों नहीं
था ?
मैं इस चल रहे
विवाद के अन्दर नहीं जाना चाहता | मेरा तो बहुत simple logic है | कहा जाता है की
आंबेडकर जी ने संविधान बनाया [यह इस हनक के साथ कहा जाता है मानो संविधान सभा के
तीन सौ सदस्यों को उस समय लकवा मार गया था] | चलिए मान लेते हैं
| तो आंबेडकर जी कोई दलितों के दुश्मन तो थे नहीं
? फिर उन्होंने संविधान में प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान क्यों नहीं रखा ?
इसका मतलब है कि
उन्होंने इसे अनावश्यक और अनुचित माना होगा | फिर अब इसके लिए संविधान में संशोधन क्यों किया
जा रहा है ? इसकी माँग क्यों की जा रही है ? क्या इससे आंबेडकर जी का अपमान नहीं होगा , जो दलितों में देव
समान प्रतिष्ठित हैं ?
* आग में घी
विकट स्थिति में
हो गया हूँ मैं ! भाई लोग मुझे एक तरफ जातिवादी ब्राह्मणवादी सवर्ण बताते हैं , दूसरी ओर वही लोग मेरे पोस्ट्स को बाकायदा 'छू' रहे हैं , उस पर कमेन्ट पर कमेन्ट मार रहे हैं | यहाँ तक तो गनीमत था | वे लोग आगे बढ़ कर मेरे वाल पर भी आ जाते हैं
और उसे 'गन्दा? ' करते हैं | तिस पर भी जो मैं कहता हूँ उसे मानते नहीं , कि क्या इससे
उन्हें जातिवाद , छुआछूत समाप्त
होने की आहट नहीं मिलती , जिसकी बड़ी जिद किये ये लोग बैठे हैं ?
* आभासी मित्रों ने मेरा काम आसान कर दिया | उन्होंने तय करके बता दिया कि जातिवाद मिटने
वाला नहीं और हर आदमी अपने जाति के साथ ही रहेगा | माननी पड़ी उनकी
बात | अब मुझे आसानी यह हो गयी कि मैं व्यक्ति का
जाति देख सकता हूँ | ज़्यादातर वह नाम से ही प्रकट होता है , वर्मा - शर्मा -सिंह में थोड़ी अस्पष्टता होती
है तो उन्ही से पूछ लेता हूँ | कोई बुरा नहीं
मानता , कोई गुस्सा नहीं होता , सब ख़ुशी ख़ुशी , कभी तो सगर्व बता
देते हैं | उन्हें शर्म नहीं आती तो इस स्थिति का लाभ
उठाकर मैं उनके चाल ढाल ,
आचरण , बातचीत , सोचने के तौर तरीकों को उनके जातिगत स्वभाव से
जोड़ कर संतुष्ट हो जाता , सुकून पा जाता हूँ | फिर मुझे यह दुःख नहीं सताता या सालता कि यह तो
मेरी तरह इंटर पास नहीं , बल्कि विश्वविद्यालयाधीन बी ए, एम ए पास है, फिर भी यह इतना अज्ञानी क्यों है ?
* मेरी स्थिति ब्राडला की
इस समय मेरी दशा
चार्ल्स ब्राडला, ब्रिटेन के नास्तिक सांसद और आधुनिक सेक्युलरवाद के जनक [ होलीयोक
साहब तो फिर भी कुछ मुलायम थे, जो धर्म के साथ भी सेक्युलरिज्म का होना संभावित मानते थे ] जैसी है | नास्तिकता धर्मनिरपेक्षता तो छोड़िये, उनके स्थापित मूल्यों को कौन छू सकता है ? यह जानना रोचक होगा कि उन्हें बार बार सदन से
उठा कर बाहर फेंका गया, पर वह इस जिद पर कायम रहे कि वह GOD के नाम पर संसद
सदस्यता की शपथ नहीं लेंगे और यह उन्ही की देंN है जो आज सत्यनिष्ठा की शपथ लेने का विकल्प है | बहरहाल उनके एक और जिद्दी योगदान की चर्चा करनी
थी ki वह हिंदुस्तान की आजादी के प्रखर हिमायती थे | उन्होंने इसके लिए बरतानवी संसद पर बड़ा जोर
डाला , जब ki चर्चिल इसके खिलाफ थे | इसी प्रकार लोग मेरे भी खिलाफ हैं | सभी लोग लोकतंत्र की मलाई खाना चाहते हैं , वे लोग भी जो सदा सत्ता और सम्पदा से परिपूर्ण
रहे | लेकिन मैं भारत में दलितों को उनकी सत्ता और
आज़ादी का पक्षधर हूँ जो कि उनका हक है, जिससे वे सदियों से वंचित रहे हैं | वही सच्चे लोक हैं और उनका ही तंत्र सही लोकतंत्र
होगा , ऐसा मैं मानता हूँ , मैं ब्राडला की तरह नास्तिक धर्मनिरपेक्ष और
लोकवादी - स्वतंत्रतावादी |
* फेस बुक के मित्रों को अवगत हो कि मैं एक वृद्ध व्यक्ति हूँ, थोड़ा चिडचिड़ा , और लिखना एक अरसे
से मेरे शौक, मेरे मनोरंजन, मेरी आदत में शुमार है | दिल हरदम धड़कता, दिमाग हरवक्त चलता रहता है | मैं सोचकर नहीं
लिखता बल्कि लिख कर ही सोचता और एक अदद जीवन जीता हूँ | इस आभासी किताब पर मैं अपना सब कुछ उड़ेल देता
हूँ | इसलिए मेरा जो आपको अच्छा लगे बस वही पढ़ें | उस पर Like करें तो कमेन्ट न करें, Comment करें तो लाइक न करे , Notification अतिरिक्त हो जाता है | और शेष जो नापसंद हो , उसे एक आँख से पढ़ें दूसरी आँख से निकाल दें | अनावश्यक विवाद न बढ़ाएँ | और चैट तो इमरजेंसी में ही करें | मैं बहुत व्यस्त हूँ | बड़े काम हैं मेरे पास , बड़ी जिम्मेदारियाँ है मेरी | फिज़ूल की बहस के लिए मेरे पास समय नहीं होता |
जिसका जो मन हो उसका अर्थ लगाये, या उस पर सोचे समझे, मेरा काम तो सिर्फ कह - लिख - बता देना है | इसका कोई गुनाह मेरे ऊपर आयद नहीं होता | मूर्खता करना और गलत बयानी करना भी मनुष्य का
जन्मसिद्ध अधिकार है | और वह आदमी 'मैं' हूँ |
[ इसे मैं ग्रुप के About में भी डाल रहा हूँ, जिसको जब भी पढ़ना हो पढ़ ले ]
My
political guru is Jinnah - an atheist and honest one.
प्रिय सम्पादक [हिंदी मासिक] RNI - 46167 / 1984 . Postal No - LW /NP - 92
(दिनमान प्रेरित- मूलतः सम्पादक के नाम पाठकों
के पत्रों की पत्रिका)
संपादक - उग्रनाथ
नागरिक द्वारा 'सुलेखन' प्रेस में पत्र
लेखकों द्वारा फेसबुक पर मुद्रित करवाकर प्रकाशित किया गया | घोषित मूल्य - दो
रु., आमंत्रण मूल्य- निःशुल्क | लेखकों के विचारों
से सम्पादक की शाश्वत असहमति | अतः कोई भी विवाद किसी भी न्यायालय में
स्वीकार्य नहीं |
घोषणा:-मैं, उग्रनाथ नागरिक {नागरिकता-भारतीय}, पता- L-V-L / 185 , सेक्टर- एल, अलीगंज. लखनऊ - 226024 (उ. प्र.), घोषणा करता हूँ कि उपरोक्त तथ्य मेरी जानकारी
के अनुसार सत्य हैं |
Mob - 9415160913
पुनश्च =
* एक करता
ज़मीन आसमान
तुम्हे पाने को |
* चारा फेंकता
कोई दूसरा नहीं
मैं फँस जाता |
* मानो न मानो
बताना मेरा काम
अब चलता हूँ |
* यह विधा है
या कोई द्विविधा ?
साहित्य जाने |
As a token of thanks:
एक कविता –
------------
एक सही वर्तनी हो
तुम
प्रूफ की
तमाम गलतियाँ हूँ
मैं |
#(To be sung )
एक कविता -
" आप मुझसे
जीतेंगे कैसे
जब मैं आपसे
लडूँगा ही नहीं ?
[कविता ]
* मैं बाएँ मुड़ा
फिर और बाएँ
फिर थोड़ा और बाएँ,
अरे, यह तो दक्षिणपंथ का इलाका है |
* अनुमान नहीं था कि एक छोटी सी कविता इतना असर
कर जायगी |
About 40 Likes आ गए , मैं अभिभूत हूँ | सभी मित्रो का तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ | कृपया मुझे मित्र बनायें |
जल्दी में हूँ | ज़र्रानवाज़ी के लिए धन्यवाद स्वरुप तीन कवितायेँ उज्जवल जी , नील जी और परमानन्द जी को नज्र करते हुए :-
* सारे योद्धा
अयोध्या में ?
डरपोक कहीं के !
* जब मैंने तुमसे
प्यार किया था ,
विश्वास करो -
मैं कोई ' किताब '
पढ़कर नहीं गया था
|
[उपरोक्त दोनों कवितायेँ तीस्ता सीतलवाड़ जी
मुझसे अपनी डायरी में लिखवा कर ले गयी थीं ]
* बच्चे ,
धूल उड़ाते चलते
हैं
और हम
धूल से बचते ,
बच्चे बड़े होते
जाते हैं |
#
(लेकिन श्रीमंत गण, इन्हें कविता मानता कौन है ?)
* मैंने पर्चे छापने १९७६ से ही शुरू कर दिया था और १९८४ से
पंजीकृत मासिक पत्र ' प्रिय संपादक ' से | सबका संपादक मैं रहा हूँ , पर मुझे यह पदनाम कभी पसंद नहीं आया | सं तो ठीक है - संवाद , संवेदना आदि के पूर्व लगता है | पर पत्रकारिता के इस महत्व के पद में सं के बाद
जो कुछ लग जाता है , वह अच्छा नहीं लगता |
* [यथा कविता ] = लखनऊ के एक मित्र हैं , मौलवीगंज मोहल्ले
में मूल निवास है | वह घना बसा इलाका है , सो उन्होंने गोमतीनगर में मकान बनवाया | और स्वयं सम्प्रति
मुंबई में हैं | भाई पहले सवर्ण रहे होंगे,अब obc में हैं और दलित
विमर्श के प्रखर पैरोकार हैं | इससे मैं विचार प्रणाली यह निकालता हूँ कि भाई, भले ही तुम पुराना
मोहल्ला छोड़कर नए में गए और फिर वहाँ से बाहर | आगे चाहे सिंगापूर
मलेसिया कहीं भी चले जाओ पर मौलवीगंज मोहल्ला तो तब भी रहेगा , अपनी पूरी
प्राचीनता के गौरव, सम्मान और इतिहास के साथ | वह कहीं चला नहीं जायगा | उसी तरह आप चाहे
सवर्ण ब्राह्मण को छोड़कर OBC , दलित - महादलित - शुद्र -अछूत कुछ भी हो
जाओ , ब्राह्मण तो तब भी रहेगा, जिंदा रहेगा किसी
भी तरह अपने गली कूचों - गन्दी नालियों के साथ
मौलवीगंज, ताज़ीखाना, नखास जैसे मोहल्लों की तरह हिंदुस्तान में | और वह तुम्हे खूब
याद आयेगा | याद आता है न अपना मौलवीगंज ? वहाँ तुम्हारे अपने लोग अभी भी रहते हैं , जो बेतरह तुम्हारी
यादों में बसते हैं | इसीलिये तो जब तुम लखनऊ आते हो पहले मौलवीगंज जाते हो ? मत छोड़ना पुराने
मोहल्ले को, तुम्हारा मातृभूमि है वह ! माँ ने
तुम्हें वहीँ पाला पोसा था | उन्ही गलियोँ में
खेल कूद कर तुम बड़े हुए | उस पुराने ख्याल के, दकियानूसी ब्राह्मण से इतना घृणा करना उचित नहीं |
* मैं कमेंट्स और विवाद में समय नष्ट नहीं करना चाहता , पर वहीँ से यह
परिभाषा आई है कि जो दलित के पक्ष में है वह दलित है , अन्यथा
ब्राह्मणवादी | इसीलिये कविता का पात्र दलित है | OBC को आरक्षण से
पूर्व शायद सवर्ण रहे हों | वैसे भी obc बहुत दलित और कम बाभन नहीं होते,भगतजी होते हैं/थे| Pl. excuse me neel ji |
* मुझे 'व्यक्ति ' से कोई शिकायत नहीं है , वे अच्छे हों या
बुरे | लेकिन संगठन संस्थाओं से है | व्यक्ति से तो कोशिश करके निपटा जा सकता है , पर यदि संस्था में
बिगाड़ आया तो वह किसी व्यक्ति के वश में नहीं रह जाता | उसे या तो सरकार ठीक कर सकती है,जो कि कम ही करती
है,या उसके विरोध में फिर संगठन बनाने
की ज़रुरत पड़ती
है,जिसमे फिर अपने क्रम में वही बुराई पनपने लगती है , जिसके नाते मैंने 'उस ' संस्था की शिकायत
की थी |
* कुछ बातों में वैसे मैं कोई बुराई नहीं समझता | जैसे दीप प्रज्वलन
, सरस्वती वंदना , हाथ मिलाना या पैर छूना भी | लेकिन व्यक्तिगत
रूप से मुझे ये सब बिल्कुल पसंद नहीं |
* भारत के हिन्दुओं नालायकों को कोई परेशानी नहीं है ,चाहे मुगलों का
शासन हो या अंग्रेजों का | या फिर लौटकर इस्लामी शासन क्यों न आ जाय | इसीलिये मुस्लिम
हिंसक प्रदर्शनों पर इनका कोई ख़ास विरोध नहीं है - वह या तो
राजनीति थी या कुछ सिरफिरों का कारनामा, बस ? लेकिन हम
नास्तिकों को ऐसी घटनाएँ बहुत बेचैन करती हैं , तभी हम ज्यादा
तिड़- तिड़ करते हैं | क्योंकि इस मुस्लिम परस्त निजाम में तो हम जैसे
तैसे दिन काट लेते हैं , डायरेक्ट , सीधे सीधे इस्लामी राज्य में हमारा निर्वाह नहीं हो सकता | जो कि शीघ्र आने
वाला है , यदि स्थितियाँ ऐसी ही रहीं तो |
[कवितायेँ ]
* बरसों से मैं पड़ा हूँ
इसी पशोपेश में ,
चन्दन कहाँ
घिसूँ
टीका कहाँ
लगे ?
* सतह पर तो मैं
साँस लेने भर आता
हूँ,
डूब जाने के लिए
फिर
अतल गहराइयों में |
* मैंने मछली को
मारा नहीं था ,
मैंने तो उसे
डूबने से बचाने के लिए
पानी से बाहर
निकाला था |
* तुम्हारी पोलिटिक्स
तो देख ली
पार्टनर !
अब तुम बताओ -
तुम्हारी जाति
क्या है ?
------
* गरीब होना
ज़रूरी लेखक का ,
ख्याति खातिर |
* अभी बच्चे हैं
नहीं समझ पाते
छल कपट !
* मुल्क उनका
उनके बाप का
जैसे चलायें !
* उर में आग
A B
C D X Y Z
सबमें आग |
[बदमाश हाईकू ]
* कच्ची उम्र में
पक्की किताबें पढ़
बड़ी हो गयीं
फिर पढ़ूँगी
जिद बनी उनकी
कच्ची होने की |
* नाम से भला
क्या होता है , आँखें तो
नीली हों , नाम
कुछ भी हो चलेगा
इससे जातिवाद
नहीं मिटेगा |
* कुछ नहीं है
वेदों में कुछ तो
है
उज्ज्वल हैं जो
सब कुछ इनमे
भु फरमाते |
* जो न भुजल
होते, कुछ अज्ञानी
खा जाते मेधा
जो डटी हुई
इनसे अकेले ही
लोहा लेती है |
[कविता ]
* भविष्य का कोई सपना हो
वह उसका अपना हो
तब वह विचारक है
दर्द का निवारक है
वरना क्या है ,
पोथियाँ पढ़ते
रहो
बहस पर -
बहस करते रहो !
#
* किसी जाति में
पैदा होने का कोई
अर्थ नहीं ,
जातिवाद का अर्थ -
श्रेष्ठ या न्यून
होना
जन्म के आधार पर ,
हम जाति में हैं
जातिवादी नहीं |
#
* आदमी ने
ईश्वर का बनाया तो
तोड़ दिया ,
ईश्वर आदमी का
बनाया नहीं तोड़ पा रहा है |
ईश्वर ने प्रकृति
में मनुष्यों को
बराबर बनाया था
उसे मनुष्य ने तहस
नहस कर दिया ,
मनुष्य ने जातियाँ
बनायीं ,
ईश्वर ,धर्म और राष्ट्र !
भगवान इन्हें कहाँ
मिटा पा रहा है ?
#
* ई दइयो [भगवानौ ] पता नहीं कहाँ मरि गै, उफ्फर परि गै जौन
हमार नाहीं सुनत है |
" बाढ़ हो , अकाल हो भूख महामारी हो या कोई दुःख की घड़ी , जिसमे मनुष्य को ईश्वर पर गुस्सा आता हो, ऐसी उक्ति किसी भी दलित महिला को जोर जोर से उचारते आसानी से सुना जा
सकता है | सीता की अग्नि परीक्षा लेने वाले राम को
गालियाँ देते हुए भारतीय स्त्रियाँ खुलकर अपने लोक गीतों में
गाती हैं, खूब अपशब्द कहती हैं | ईश्वर के प्रति मनुष्य के इस प्रेम सम्बन्ध
को समझना सबके वश का काम नहीं है | लेकिन केवल भारत
इस अध्यात्म की पराकाष्ठा को छू सकता है, गहराई को नाप सकता
है | तो , खूब खेलने दीजिये हर किसी मनुष्य को ईश्वर के साथ !
इसी में ईश्वर की महत्ता है , यही ईश्वर की
इच्छा है | और यदि मनुष्य बाल भावना से संपृक्त होकर ईश्वर की गोद में बैठेगा तो वह उसका
चेहरा तो खरोंचेगा, उसकी दाढ़ी और बाल भी नोचेगा | यह उस सन्दर्भ में
कहा जा रहा है जब कुछ उत्साही लोग ईश्वर के चित्रों के साथ खिलवाड़ होने, उसकी मूर्तियों के अपरूप होने पर अनावश्यक
उत्तेजित होने लगते हैं, मुसलमानों की नक़ल पर ! |
* समाज में कोई दलित आन्दोलन नहीं है | जो कुछ है वह नेताओं की नेतागिरी, और कुछ पढ़े लिखे दलितों की अपने वर्ग का
ब्राह्मण बनने की चाहना में है, अपनी छवि - पहचान
बनाने की कोशिश भर है और कुछ नहीं | समाज में दलित
ब्राह्मण सभी जातियाँ एकरस हैं |
=========================== 22/8/2012
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