* सच कहना
बहुत कठिन है
झूठ आसान |
* सत्य वचन
सुनना हो तो सुनो
नहीं तो जाओ |
* गफलत में
सदा पड़े रहना
हमारा शौक |
*बात नहीं थी
भाषण तो अच्छा था
वाह ! क्या खूब |
* आदमी जानवर और देवता के बीच में है | इसका मतलब यह नहीं कि वह पूरा देवता बनाया जा
सकता है , या पूरा जानवर | यह जहाँ है वहीँ
रहेगा , वहीँ रहना ही इसके लिए समीचीन है - बस आदमी | देवता बनने बनाने के चक्कर में यह आदमीयत का
बड़ा नुकसान कर देगा | यही तो किया धर्मों ने !
* भाषा है , इसका ज्ञान सागर
इतना विशाल है कि गलतियाँ हो ही जाती हैं, और यह स्वाभाविक
है | लेकिन लोग सबसे बड़ी गलती जो करते हैं और जो बहुत बुरी
लगती है वह यह कि गलती इंगित करने पर भी उसे नहीं मानते, बल्कि उलटे उलझ पड़ते हैं | भाषा आसान होनी
चाहिए, जो वर्तनी मैंने लिखी उससे बात तो समझ में आती
है , बस और क्या चाहिए ? सान्निध्य , सौहार्द्र , व्यंग्य आदि की शुद्धता का आग्रह क्यों जब सानिध्य,सौहाद्र, व्यंग से काम चल जाता है ? सही बात है - शार्टकट का ज़माना है, ज्यादा मेहनत क्यों की जाय ? वह भी उस भाषा पर जो हमारे बाप की है | हम जो चाहें जैसा चाहें बोलें लिखें |
दूसरे जो बात खटकती है वह - जैसा प्रमोद जी ने बताया, मनमानी
प्रयोगपेलिता का है, जिसे प्रभाष जी ने पर्याप्त किया | 'अपन' से तो अभी तक उनका
' अमदाबाद ' भी नहीं पचा | अजीब तर्क - इसे
स्थानीय तौर पर यही बोला जाता है | ऐसे तो अगणित
स्थान होंगे | गनीमत लखनऊ को नखलऊ या लखनौ नहीं लिखा जैसा
पुराने लोग कहते - लिखते हैं | रघुबीर सहाय ने भी
पर्याप्त वर्जिश की | बिंदियाँ उन्होंने ही प्रचलित किया | कारण कुछ अलग नया कर गुजरने की अभीप्सा या विद्वता, कहना कठिन है | लेकिन चलिए , वे लोग पत्रकारिता
के स्तम्भ थे कुछ भी करें |
ऐसा अशोक जी के
स्वतंत्र भारत से ही मैंने गौर किया , जब रिचा फीचर्स और
रिषी पढ़ना पड़ा था |
हम बुढ़भस लोग हैं न ! कक्षा में क्षात्र हुआ
करते थे |
अब छात्र हो गए हैं तो कच्छा में आने में क्या
दिक्कत ?
पड़ारकार जी ने जब ' राष्ट्रपति ' जैसा अनुचित शब्द देकर राष्ट्र को पुरुष वर्चस्ववादी बना
दिया तभी हमने क्या कर लिया | पर क्या अब वह
प्रचलित नहीं हो गया ? किसका ध्यान इस पर जाता है ?
हिंदी को इसका
मौलिक अभिमान ही इसे खाए जा रहा है - इसमें जो बोला जाता है वही लिखा जाता है | तो फिर भुगतिए | यही हो तो रहा है | अब अशुद्ध बोलने को तो आप माना कर नहीं सकते ! फिर कैसी वर्तनी कैसा उच्चारण ?
*
INCREDIBLE INDIA - यह कोई
साम्प्रदायिकता की बात नहीं है | विगत और अभी भी
जारी घटनाओं से यह तो तय है कि हम म्यांमार के भी नागरिक हैं | तभी तो विचलित , आक्रोशित हुए वहाँ के मुस्लिमों पर अत्याचार के खिलाफ ? क्योंकि मुसलमान
भारत में भी हैं और भारत मुसलमानों का भी है | प्रथमदृष्टया यह
बात तो भारत की महानता के पक्ष में जाती है | वाह! कितना जागरूक
है भारत राजनीतिक रूप से , और वह अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भी दखल रखता
है |
एक लेखक ने लघु
कथा में लिखा [क्रिकेट के खेल के सम्बन्ध में ] कि भारत दोनों ही दशाओं में ख़ुशी मनाता है , वह जीते तो भी , हारे तो भी | तो यह तो भाई उच्च आध्यात्मिक स्थिति है जहाँ न सुख है न दुःख है , सारी स्थितियों में स्थितिप्रज्ञता है | लेकिन काश ऐसा होता ! तब तो हमसे क्या मतलब
होता म्यांमार में क्या हो रहा है ? उनकी वे जाने , हिंदुस्तान की समस्याएँ क्या कुछ कम हैं माथा
पीटने के लिए ? लेकिन नहीं , हम तो डेनमार्क की
घटनाओं से उत्प्रेरित हो लेते हैं | वह भी क्षम्य होता
यदि अन्य वैश्विक मुद्दों पर भी अपनेपन की चिंता होती | अमरीका के ९/११ से भी हम दुखी होते और मुंबई के
२६/११ से भी | लेकिन तब तो हमारा रुख बदल जाता है | इसलिए इसे भारत की, जिसके मुसलमान भी बाशिंदे हैं , महानता तो नहीं
कहा जा सकता | संकुचित साम्प्रदायिकता ही है यह , और ऊपर से शर्म , लेकिन हमें नहीं
आती |
बिल्कुल ताज़ा घटना को लें तो इसमें तो भारतीयता की ही
कमी नज़र आ रही है क्योंकि इसमें असम के मूल निवासियों की चिंता कहीं नहीं है | वे दर से काँपते
हए अपने रोज़गार से पलायन कर रहे हैं | उनके साथ किसी की
सहानुभूति नहीं है | वे मनुष्य थोड़े ही हैं, खासकर तब जब वे भारत के हों ! सब एकतरफा है | चलिए इसे भी उचित मान लेते हैं अपनी कथित विशाल हृदयता दिखाने के लिए | तो यदि म्यांमार के खिलाफ प्रदर्शन करना ही था
तो बाक़ी भारत को भी कुछ विश्वास में ले लेते | हिन्दुओं से भी
अपने दिल का दर्द बताकर साथ देने को कहते | कट्टर हिन्दू यदि
नहीं तो सेक्युलर जन तो समर्थन देते ही | क्या ऐसे लोग कम
है जिन्होंने बाबरी - गुजरात मामलों पर मुस्लिम हितों के लिए जी जान से साथ दिया ? इसे तो मुस्लिम
समुदाय भली भाँति जानता और मानता है , और इसके लिए वह इनकी सराहना भी करता है | तो अब क्या हो गया ? यह विश्वासघात कैसे हो गया ? उसे क्यों नहीं बताया गया | वे तो साथ देते ही | अब क्या मुसलमानों के व्यवहार से उनके सेक्युलर
साथियों को दुःख नहीं हुआ होगा , वे और बदनाम नहीं हुए कि देखो यही है वे लोग
जिनका तुम पिष्टपेषण करते थे ? उनका मोहभंग होना
स्वाभाविक नहीं हुआ | याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा कि इन्ही
सेक्युलरों ने अपने देश में उनके लिए बड़ी गालियाँ खायीं पर बाबरी को मंदिर नहीं
होने दिया और मोदी को अभी भी कचहरी दौड़ा रहा है | ऐसा नहीं हुआ तो
मतलब उत्पातियों को अपने निजी संगठन शक्ति और जन बल पर बड़ा भरोसा , नाज़ और घमंड है | इतना तोड़ फाड़ , हिंसा उपद्रव हुआ तो इसका कारण यही तो समझा जायगा ? लेकिन यह उचित नहीं है, नहीं हुआ, नहीं हो रहा है | समझना होगा कि भारत में लोकतंत्र है और यह
पाकिस्तान के पलट एक नान इस्लामिक देश है, भले हिन्दू नहीं | यह हिन्दुओं की सदाशयता ही थी जो उन्होंने इसे
सेक्युलर संविधान दिया, जो कि पाकिस्तान अपने कायदे आज़म की लाख सलाह के बावजूद पाकिस्तान में नहीं कर पाया | यहाँ तमाम धर्म , जातियाँ -
प्रजातियाँ हैं , कुछ हिन्दू भी हैं | सबका ख्याल रखकर ही देश में शांति बनाई जा सकती
है, और विकास जिसकी बड़ी चर्चा है राजनीतिक हलकों
में |
हिंसा से आप अपने लिए देश की दुर्भावना ही
इकट्ठी करेंगे | और इससे कभी आपका
नुकसान भी हो सकता है , सही है अभी तो आप जीत रहे हैं | पर जिस दिन भारत का दलित महासमुदाय भी कुछ भ्रम से मुक्त होकर आपके विपक्ष में आ
लेगा, आपको अपनी हेंकड़ी भूलनी पड़ेगी | सरकार की चुनावी कमजोरियों का अनुचित लाभ न
लीजिये | भारत आपका सम्मान कर रहा है तो आप भी उस इज्ज़त
के लायक बनिए | यह क्या मजाक है , जब तब , आये दिन ? कभी डेनमार्क कभी तसलीमा कभी रुश्दी कभी वन्दे
मातरम कभी यह विरोध कभी वह फतवा ? तिस पर कहते हैं -
आरक्षण ! और सरकार की सच्चर कमेटी इसे देने को भी तत्पर | मुझे कोई एतराज़ न हो यदि कोई माई का लाल मेरे
इस महाप्रश्न का उत्तर दे दे - क्या ऐसी हरकतें ऐसी कौम कर सकती है जिसमे कुछ गरीब
भी हों ? जिसे अपने मुजलिमों, वंचितों की कोई वाकई चिंता हो ?
* अंग्रेजी वाले कभी क्लिष्टता का उलाहना नहीं
देते , बड़े - बड़े अंग्रेजीदां अपनी मेज़ पर शब्दकोष रखते हैं और इसके लिए वे शर्मिंदा नहीं होते | अब क्या करें , हमें तो शर्म आती
है | हम अज्ञानी समझ लिए जायँगे |
* सत्यतः आध्यात्मिक धार्मिक मानववादी अभिरुचि वाले महानुभावों का उग्राः[ धार्मिक राजनीति] ग्रुप में आमंत्रण
है | धर्म का नाम तो 'धार्मिक' होना तय है, पर दल का नाम नहीं
| तब तक धारा नाम से काम कर रहे हैं |
पुनश्च - यहाँ
अपना पराया नहीं चलेगा | या कहें, सभी अपने हैं सभी
पराये, सर्वथा निरपेक्ष | इस समूह में शामिल
होने के लिए आपको सभी धर्मों का आलोचक और सभी धर्मों का प्रशंसक होना पड़ेगा | उच्च मानसिक
स्थिति, तार्किक क्षमता और आध्यात्मिक श्रेष्ठता का
धारण और प्रदर्शन करना पड़ेगा | निंदा में कुछ सांस्कृतिक अनुशासन भले आवश्यक
है, लेकिन ग्राह्यता तो सबकी, जो कुछ भी उनकी है, खुलकर स्वीकार
करनी पड़ेगी | आप इस ग्रुप के पात्र हैं या नहीं यह भी आपको
अपनी ही सत्यनिष्ठां से अंतर्वीक्षण द्वारा तय करना है |
धार्मिक (नैतिक)
राजनीति में भी हम कोई बुराई नहीं समझते, लेकिन उस नैतिकता
की निर्णायिका- मनुष्यता, वैज्ञानिक सभ्यता, सांस्कृतिक
मानववाद की मनीषा होगी | At the Religious Party
group
ऋषि जी, तो कुछ कवितायेँ
चुनिए, मैं कुछ और मिला दूँगा | फिर एक चाय पर
कविता पाठ करा दीजिये | बस मंच को हिन्दू- मुस्लिम - दलित - कम्युनिस्ट
नहीं होना चाहिए | अब चूँकि यह संभव नहीं है , इसलिए गोष्ठी
मुमकिन नहीं है | इसलिए व्यक्तिगत रूप से कविता पसंद करने के लिए
धन्यवाद | देख तो रहे होंगे, वे किसी खांचे में
नहीं बैठती होंगी | कभी देखा मुझे कविता पढ़ते हुए ?
और हाँ, आशीर्वाद भी दे ही
दूँ | तो आपकी पत्नी को एक पुत्र प्राप्त हो जो आप
दोनों की सपत्नीक खूब जमकर 'सेवा' करे , लाठी लेकर टहलाये | खुश ?
* आज कुछ शुभ वचन स्मरण कर रहा था, रमजान माह के सुबह
सुबह प्रार्थना के तौर पर | इस्लाम प्रेम - मोहब्बत, भाईचारा सिखाता है ; सब्र रहम और मुआफ
करना बताता है - - और तमाम कुछ
जोड़ लीजिये | यह सब मैंने
अख़बार में पढ़ा | अखबार में कुछ और भी ख़बरें थीं पूर्वोत्तर की, मुंबई पूना
बेंगलुरु की | मेरे हँसने पर न जाइये, वह यूँ ही आ जाती है |
* कुछ सूना सूना सा लग रहा है न ? तमाम काल्पनिक और
यथार्थ मुद्दों पर भीषण चर्चा करने वाले चिन्तक वर्तमान की हिंसा और व्याप्त दहशत, भागा भागी पर
अविश्वसनीय रूप से चुप हैं | क्यों भला ? क्या पूर्वोत्तर
राज्य दिल्ली राजधानी, पत्रकारों के गढ़
से बहुत दूर है इसलिए ? यही जब शिव सेना ने उत्तर भारतीयों को निकाला था, तब तो बड़ा शोर मच
रहा था ! लगता है अबकी कोई
बहुत बड़ी सेना सामने दरपेश है , जिससे डरना स्वाभाविक है | इसलिए हे साधुना रक्षणाय भारत की एजेंसियों, आज़ाद मैदान में
हुए हिंसा और दहशत फ़ैलाने वालों की चाहें जितनी खोज करो पर कभी भूल कर भी
किसी मुस्लिम युवक को न पकड़ना | अनावश्यक कवायद न करे पुलिस
प्रशासन | उससे कुछ हासिल नहीं होगा | वे गुनहगार हो ही
नहीं सकते | उन्हें अपराध करना सिखाया ही नहीं जाता | भूलवश कुछ सबूत
वबुत लाओगे तो अपनी फजीहत ही कराओगे | तीस्ता सीतलवाड़ & कं. जन अदालत बैठाकर उन्हें बेगुनाह बताकर छोड़ने के लिए आन्दोलन छेड़ देंगी, और सरकार सकते में
आ जायेगी | संदेह हिन्दुओं पर
भी न करो वर्ना संघ तुम्हे तुष्टीकरण का पापी बता दगा | इसलिए खोजो , शायद पूर्वोत्तर
निवासियों ने ही यह बलबा न फैलाया हो, मुसलमानों को बदनाम करने के लिए ?
* देश की आज़ादी के बारे में मैं यह सोच रहा था कि आखिर क्या हो जाता तब लोग
संतुष्ट होते, जो अभी अधूरी आज़ादी, क्या मिला आज़ादी से वगैरह कह रहे हैं ? मैं तो कहूँगा
कितनी भी तरक्की हो गयी होती उपलब्धियाँ हासिल हो गई होतीं, तब भी मैं संतुष्ट
न होता | कोई राष्ट्र कभी संतुष्ट हो ही नहीं सकता, होना ही नहीं चाहिए
उसे, वरना वह मर न जायगा ? संतुष्टि के बिंदु पर पहुँच कर तो हमारे पास
कुछ करने को रह ही नहीं जायगा | क्या हम यही चाहते हैं ? इसलिए असंतुष्ट
सही , कुछ कर तो रहे हैं , करने कि सम्भावना तो है ?
* सही बात है -
मँहगाई बहुत
बढ़ गई है ,
सिगरेट बहुत
मंहगी हो गई है ,
फिर भी -
छोडूँगा न पीछा
तेरा सोंणिये
|
* सच्ची बात है
धर्म खतरे में हैं
सब के सब
इन्हें मानने वाले
हत्या करना
चाहते है इनकी
जिंदा मारना
अपने बर्ताव से
धर्म क्या करें |
* धर्म से चिढ़
पर धर्म का नाम
हमें मंजूर |
* अजेंडे पर
समता है आपके ?
सच्ची बताना |
* हाथ दिखाओ
इंडिकेटर भी दो
तब तो मुड़ो |
* सहानुभूति
न हो तो
स्वानुभूति
रखे रहिये |
* मैंने क्या किया
आदमी करेगा जो
कुछ भी करे |
* ब्रह्म जाल में
फँसे हैं अभी हम
फुर्सत नहीं |
* अभी मुझको
बहुत लिखना है
अभी क्या लिखा ?
* सभी आदमी
सभी की जिंदगी है
महत्वपूर्ण |
* ज़रा भी नहीं
इनमे कोई आग
प्रकाश कहाँ ?
* कल्पना कर लें कि यदि अभी कोई कट्टर नमाजी
मुसलमान , मुल्ला मौलवी या नेता कुछ समाज सुधार की बात करे तो हम उसके लिए पलक पाँवडे
बिछा देते हैं जैसे सीमान्त गाँधी , मौलाना आज़ाद और
तमाम उदारवादी | इसमें सूफी आन्दोलन को भी रखा जा सकता है | कोई समाज सेवा के
कर्म में प्रवृत्त हो तो हम उनके प्रशंसा के पुल बाँध देते हैं जैसे सर सय्यद अहमद, राही मासूम रजा , मंटो, हैदराबाद एकता और
असगर अली इंजीनियर जैसे तमाम लोग | और कमोबेश तो हो सकता है, लेकिन इनमे से कोई भी इस्लाम के विरुद्ध
झंडा लेकर खड़ा नहीं हुआ | मदर टेरेसा के साथ भी सबका पूज्य भाव ही है जब कि वह पक्की ईसाई थीं
| आंबेडकर अपवाद , किसी ने अपना धर्म छोड़ा नहीं था | फिर यदि गाँधी ने जो
कुछ किया हिन्दू धर्म के दायरे में किया तो उनकी इतनी कटु
और कठोर आलोचना क्यों ? जब की एक स्थाई अपमान तो वह झेल ही रहे हैं - मजबूरी का
नाम महात्मा गाँधी ' के कहावत में | हमें शर्म आनी
चाहिए अपने दोमुहें चरित्र पर |
* [ मनोविकार ] पहले असम, फिर असम और म्यामांर को लेकर मुंबई , पुणे में हिंसा और बेंगलुरु में दहशत [
अफवाह ? ] | मेरे देवता मित्र
क्षमा करेंगे यदि मैं कहूँ कि मैं नासमझ, मूर्ख दकियानूसी सही, पर मेरा मन गवाही नहीं दे रहा है इस वर्ष " ईद मुबारक " मनाने का !
यह भला ग्रुप में
शामिल करने का क्या विवाद उठ गया ? क्या एक ही तरह का विचार
रहना है इस ग्रुप में - e .g संदीप + सोनकर के ? और सारा ज्ञान -
विचार इन्ही के पास है | इसीलिये मैं काफी
हॉउस पर कभी पोस्ट नहीं करता, जिससे कम से कम
निकाला जाने से बचूँ और विद्वानों का लिखा बाँच तो सकूँ | बहुमत उनके विरोध में है तो मेघना की माँ कब तक खैर मनाएगी ? चूँकि कमेन्ट तो करता ही हूँ इसलिए एक त्रुटि की ओर साक्रोश
इशारा करूँगा - " अभी अभी ग्रुप में आयीं और दो पोस्ट - - " | भाई ग्रुप में अभी आई होंगी पर दुनिया में तो - - | प्रोफाइल दिलचस्प ? लिबरल लेफ्ट ? तो ये हैं आपके स्वनामधन्य विचारक ? विचारक किसी विरोधी की खिल्ली नहीं उड़ाया करते, विशेषकर नवागंतुक, वह भी स्त्री की | और यह हंसी मजाक, नानसेंस [जिसमे और
केवल जिसमे मैं निर्भीक पोस्ट डालता हूँ ] | तथापि
अम्बेद्करायिट्स के लिए सब क्षम्य !
* विचारक ?
विचारक होता क्या
चीज़ है | विचारक कहलाने का सही पात्र कौन हो सकता है ? वरना सोचता तो हर आदमी है | तो क्या हर आदमी विचारक होता है ? क्या प्रत्येक व्यक्ति को चिन्तक कहा जा सकता है ? नहीं, क्योंकि हर आदमी केवल अपना स्वार्थ सोचता है, उसके आगे नहीं बढ़ता | और यहीं से विचारक की परिभाषा के सूत्र मिलते
हैं | -
जो अपने से बाहर निकल कर सोचता हो | जो अन्य व्यक्तियों, यहाँ तक कि अपने आलोचक-विरोधी और शत्रु के
स्थान पर भी अपने को रखकर सोचने की क्षमता रखता हो |
और यह तो अलग से है कि उसकी बातों में कुछ उसका अपना हो | पूर्ववर्ती विचारकों, अपने प्रिय से प्रिय, का उद्धरण भर न हो वह | उनकी काट छाँट में भी वह कुछ बोले , उन्हें अपनी तराज़ू पर तौले | क्या गलत कहा ?
और यह तो अलग से है कि उसकी बातों में कुछ उसका अपना हो | पूर्ववर्ती विचारकों, अपने प्रिय से प्रिय, का उद्धरण भर न हो वह | उनकी काट छाँट में भी वह कुछ बोले , उन्हें अपनी तराज़ू पर तौले | क्या गलत कहा ?
इस बात को बहुत पहले लिख लिया था | इच्छा तो तभी थी
कि इसे काफी हॉउस में पोस्ट करूँ विमर्श के लिए | प्रश्न गंभीर था
और सारे तो विचारक यहाँ काफी पीने आते हैं | अंकित कर भी सकता
था क्योंकि मैं भी इसका सदस्य हूँ | लेकिन अभी तक सिवा
कमेन्ट के कुछ भी पोस्ट नहीं किया तो डर लगा कि लोग सोचेंगे - यह लो, यह भी अपने को
विचारक समझने लगा , कुर्सी पर बैठने तक का तो शऊर नहीं, टेबल मैनर्स से
अनभिज्ञ | पर अब आज पोस्ट कर ही दिया तो ' विचारक ' नदारद हैं | वैसे मुझे कमेन्ट
की दरकार भी नहीं होती, न मैं उन पर प्रति
कमेन्ट ही करता हूँ | मैं तो अपनी बात कह कर निकल आता हूँ, क्योंकि मैं
संदेहग्रस्त नहीं रहता |
मैंने सोचा है कि
इस माह मैं किसी से उधार नहीं लूँगा , यद्यपि आधे महीने
में ही हालत खस्ताप्राय है | तबभी कैसे कैसे
काटूँगा, नहीं तो गाँव से मँगवा लूँगा | पिछला महीना मेरा कर्जमुक्त बीता था |
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