इस्लामी प्रोटीन गारण्टी योजना :-
बकरीद पर बातें तो बहुत हुईं, लेकिन जितनी ऊँचाई पर इसे बुद्धि से सोचा जाना था और जितनी गहराई में इस पर हृदय से विचार किया जाना चाहिए , वह न हो सका । और अधिकाँश वार्ता सतही तर्क और हिंसा अहिंसा की भावना आधारित बात हिन्दू मुसलमान होकर रह गयी ।
कहाँ से बात शुरू की जाय ? पहला सवाल यह उठता है कि इतने बकरे कटे वह सब, मतलब उनका मांस गया कहाँ ? कुछ भी गंगा, गोमती, घाघरा में तो विसर्जित करके उसे प्रदूषित तो नहीं किया गया । तो मतलब, सारा पदार्थ मनुष्य का भोजन बना, उसके उदर में गया और वह प्रोटीन प्रदान कर उसके संपोषण में काम आया । उनका चमड़ा और बाल सबका उपयोग ही हुआ | तो आगे :-
ठीक है, यदि आप शाकाहारी हैं तो कोई आप का आदर है, और आप इसे कितना भी धिक्कारें, हमें स्वीकार है | लेकिन यदि आप माँसाहारी हैं तो बकरीद के दिन भी इसे खाने में, ईदुज्जुहा मनाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए ।
लेकिन, ऐतराज़ क्या हैं ? प्रथम तो जीव हत्या को एक उत्सव मनाना । प्रथमदृष्ट्या बात तो सही है, और आगामी मुस्लिम पीढ़ी निश्चय ही इसका विकल्प लाएगी | क्योंकि जिस तरह दुनिया में शाकाहार ही ओर झुकाव हो रहा है, और इसकी मान्यता बढ़ रही है, तो इस्लाम भी उससे अछूता न रहेगा | और जब मांसाहार ही न होगा तो कहे की जीवहत्या ? लेकिन अभी तो वस्तुतः यदि समग्रता में देखें तो बकरीदी हिंसा का विरोध एक सरलीकरण भर है | और इसके लिए हम सब माँसाहारी दोषी हैं | फिर इसके लिए मुसलमानों का जलीलीकरण तो बिल्कुल ही गलत ।
अब इसका दूसरा पहलु देखें | अर्थशास्त्री गुणा भाग करके बता सकते हैं कि भारत के मांसाहारियों के प्रति यूनिट प्रोटीन की मात्रा और उसके लिए आवश्यक मांस की ज़रूरत से बहुत कम ही ठहरेगा वह मांस जो बकरीद के दिन उपलब्ध हुआ । और बकरीद के दिन जितने बकरे कटे उनकी संख्या साल के बाकी दिनों में ज़िब्ह किये जानवरों की कुल संख्या से बहुत कम ही होगी ।
तो फिर परेशानी क्या है ? मैंने पहले ही अर्ज़ किया कि यह बात तब के लिए है जब मांसाहार का सेवन चल रहा है और यह किसी जाति संप्रदाय तक सीमित नहीं । मांसाहार के ही विरोध में आप हों तो आपका स्वागत है । वरना यह तो सम्भव नहीं कि बकरा भी न कटे और आपको मटन बिरयानी मिल जाए ? अब आप यदि इसे उत्सव बनाने के विरोध में हैं, तो भी हम आपके साथ हैं । लेकिन तब इस इस्लामी धार्मिक उत्सव के साथ अन्य धार्मिक उत्सवों पर भी प्रश्न उठाना होगा । आप selective नहीं हो सकते, और आप यह भी नहीं कह सकते कि शेष सारे त्योहार तो बड़े शुभ शुभ और आलोचना से परे हैं । मैं यह भी कहकर अपना हाथ नहीं फंसाने वाला कि होली के दिन गुझिया ही क्यों बनती है, और इसी दिन मांस की दुकानों पर अहिंसक सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की भीड़ बढ़ क्यों जाती है ? आखिर, वे बकरे भी बकरे होते हैं, और कुर्रेशी साहब उन्हें भी कलमा पढ़कर उसी विधि-प्रकार से ज़िबह हलाल करते हैं, जैसे बकरीद में | झटका का मांस मुसलमान न खाता है, न बेचता है | आपत्ति ज्यादा जोरदार हो, तो कुछ कष्ट कीजिये, थोड़ा खुद ज़हमत उठाइए | झटका काटिए, झटका मांस की दुकानों से सामान खरीदिये, तो हलाल का व्यवसाय-व्यापार का सूचकांक वैसे ही गिर जायगा |
अब आगे यदि आप कहें कि लोग हिन्दू मुसलमान हैं ही क्यों, तब तो आपका हार्दिक अभिनंदन है | और कहीं आप यह कह दें कि चूँकि सारे ही धर्म किसी न किसी ईश्वर आधारित हैं इसलिए ईश्वर को ही ख़ारिज किया जाना चाहिए , तब तो हम आपके चरण चूमने वाले हैं । लेकिन कहिये तो जनाब !- श्रीमान !
लेकिन तब तक आप इसे यूँ क्यूँ न समझें कि मानो यह सरकारी "मनरेगा" सरीखा कोई असरकारी प्रोटीन गारन्टी योजना-उत्सव हो ! जिसमे लगभग प्रत्येक मांसाहारी को थोड़ा मांस मिलना सुनिश्चित हो जाता है | बलिदानी बकरे का मांस बाँटने की एक ख़ास व्यवस्था इस्लाम में है | सब कोई एक परिवार ही हजम नहीं कर सकता | अतार्किक सांप्रदायिक आलोचना उचित नहीं है |आप देखें तो इस दिवस तमाम गरीब मुसलमानों, वंचितों, भिक्षुकों को जो इसे afford नहीं कर सकते उन्हें भी मांस का स्वाद चखने को मिल जाता है | और गोबध विरोधी मांसाहारी चुटियाधारी पंडित जी भी इस दिन अपने मुस्लिम मित्रों के घर इसे छककर खा पाते हैं, जिनके घरों में इसका सेवन प्रतिबंधित होता है !
तो चिंता होली दीवाली ईद बकरीद की मत कीजिये | ये तो आ आकर चले जाने के लिए होते हैं | करना हो तो कीजिये मांस के खपत के उस परिमाण पर जो रोजाना घर-घरों में और प्रेस क्लब के बगल में दस्तारख्वानों पर होता है |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें