. (संस्कृति-समाज-सत्ता का जोड़, श्रंखला-18)
(व्यक्ति विरोध या विचार विरोध)
अम्बेडकरवाद एक तरफ "सामाजिक बदलाव" से जुड़ा है, दूसरी तरफ यह "धम्म" से भी जुड़ा है | बाबा साहेब का कार्य दो ध्रुवी है | बड़ा कठिन है यह मार्ग | दो अंतर्विरोधों को साथ लेकर चलना कितना दुरूह है ! भगवान बुद्ध ने कहा है "दो" हैं मार्ग | बाबा साहेब को दोनों मार्गों को साथ लेकर चलना पड़ रहा है | इसलिए ही अम्बेडकरवादियों में अंतर्विरोध नजर आ रहा है, द्वंद नजर आ रहा है | अम्बेडकरवादी जब "समाज" की बात करते हैं, तो धम्म बीच में आ जाता है | जब "धम्म" की बात करते हैं, तब समाज बीच में आ जाता है | जबकि दोनों की दिशाएं अलग अलग हैं | सवाल यह है कि दोनों में सामंजस कैसे बिठाएं ? नहीं, दोनों मार्गों पर एक साथ चलना सम्भव नहीं है |
वस्तुत: "धम्म" सम्रद्धता की नींव पर ही खड़ा हो सकता है | किसी भवन को बनाने के लिए नींव पहले ही रखनी होगी | नींव केवल पहले ही नहीं, मजबूत भी रखनी होगी | बाबा साहेब सम्रद्ध समाज के ऊपर धम्म का आलीशान भवन प्रस्थापित करना चाहते हैं | बाबा साहेब के "सामाजिक मिशन" के आधार में "धम्म के जीवन मूल्य" समाए हुए हैं | यदि बाबा साहब के मिशन में से धम्म के पहलुओं को निकाल दिया जाए, तो यह मिशन निरर्थक हो जाएगा | बाबा साहेब को यदि बौद्ध जगत ने महत्व दिया है, तो वह बुद्ध के कारण ही दिया है |
बुद्ध ने एक मानवीय दृष्टि दी है, कि विचार से तो सहमति व असहमति हो, परन्तु व्यक्ति से सदा सहमति बिना शर्त बनी रहे | बुद्ध किसी भी परिस्थिति में "मनुष्य" को इन्कार नहीं करते | इसमें हमेशा ऊपर उठने की सम्भावना बनी रहती है | बुद्ध ने मनुष्यों के बीच जोड़ने का इन्सुलेशन (रसायन) मैत्री भावना के माध्यम से दिया है | यह मैत्री-भाव भेदभाव रहित, व बिना शर्त है | इसमें ना तो पापी और पुण्यात्मा में भेद किया है, ना ही ब्राह्मण शुद्र में, ना ही गरीब अमीर में, ना ही स्त्री पुरुष में |
बुद्ध "भेदवाद" (विचार) से तो असहमत हैं, पर भेदवादियों (मनुष्य) से नहीं | बहुत बारीक अन्तर है | बुद्ध "मन" से तो असहमत हैं, पर "चित्त" से नहीं | क्यों ? क्योंकि मन परिवर्तनशील (अनित्य) है, चित्त सनातन (एस धम्मो सनन्तनो) है | क्योंकि मन के बदलने की सम्भावना के आधार पर व्यक्ति को नहीं छोड़ा जा सकता है | व्यक्ति का विरोध न होकर, विचार का विरोध हो, सोच का विरोध हो, दृष्टि का विरोध हो | सभी व्यक्तियों के तो पक्ष में होना है, सभी व्यक्तियों के प्रति तो भले का भाव रखना है, तभी तो हम बुद्ध की मैत्री "भाव-भावना" का पालन कर पाएगें | नहीं तो सारा मिशन, धम्म के जीवन मूल्यों से भटक जाएगा | अम्बेडकरवादियों से चूक इसी बिन्दु पर हो रही है | उन्होंने "विचार के विरोध को ही व्यक्ति विरोध से जोड़ दिया है |" वे इस पहलू पर विचार करते वक्त अपने अन्दर द्वेष ले आए हैं | यही अलगाव व घृणा की जड़ बन कर अम्बेडकरवादियों की छवि खराब कर रही है |
बुद्ध की इस दृष्टि से प्रभावित होकर बाद में संतों की व नाथ पंथों की श्रंखला ने अपनी उदार भाषा में कुछ इस ढंग से अभिव्यक्त किया है | संतों ने कहा है, "पाप से घृणा करो, पापी से नहीं |" यही बुद्ध की व बाबा साहब की मूल देशना है | मेरी दृष्टि इसी पर आधारित है | मैं इसी पर चलते हुए आगे बढ रहा हूं |
(व्यक्ति विरोध या विचार विरोध)
अम्बेडकरवाद एक तरफ "सामाजिक बदलाव" से जुड़ा है, दूसरी तरफ यह "धम्म" से भी जुड़ा है | बाबा साहेब का कार्य दो ध्रुवी है | बड़ा कठिन है यह मार्ग | दो अंतर्विरोधों को साथ लेकर चलना कितना दुरूह है ! भगवान बुद्ध ने कहा है "दो" हैं मार्ग | बाबा साहेब को दोनों मार्गों को साथ लेकर चलना पड़ रहा है | इसलिए ही अम्बेडकरवादियों में अंतर्विरोध नजर आ रहा है, द्वंद नजर आ रहा है | अम्बेडकरवादी जब "समाज" की बात करते हैं, तो धम्म बीच में आ जाता है | जब "धम्म" की बात करते हैं, तब समाज बीच में आ जाता है | जबकि दोनों की दिशाएं अलग अलग हैं | सवाल यह है कि दोनों में सामंजस कैसे बिठाएं ? नहीं, दोनों मार्गों पर एक साथ चलना सम्भव नहीं है |
वस्तुत: "धम्म" सम्रद्धता की नींव पर ही खड़ा हो सकता है | किसी भवन को बनाने के लिए नींव पहले ही रखनी होगी | नींव केवल पहले ही नहीं, मजबूत भी रखनी होगी | बाबा साहेब सम्रद्ध समाज के ऊपर धम्म का आलीशान भवन प्रस्थापित करना चाहते हैं | बाबा साहेब के "सामाजिक मिशन" के आधार में "धम्म के जीवन मूल्य" समाए हुए हैं | यदि बाबा साहब के मिशन में से धम्म के पहलुओं को निकाल दिया जाए, तो यह मिशन निरर्थक हो जाएगा | बाबा साहेब को यदि बौद्ध जगत ने महत्व दिया है, तो वह बुद्ध के कारण ही दिया है |
बुद्ध ने एक मानवीय दृष्टि दी है, कि विचार से तो सहमति व असहमति हो, परन्तु व्यक्ति से सदा सहमति बिना शर्त बनी रहे | बुद्ध किसी भी परिस्थिति में "मनुष्य" को इन्कार नहीं करते | इसमें हमेशा ऊपर उठने की सम्भावना बनी रहती है | बुद्ध ने मनुष्यों के बीच जोड़ने का इन्सुलेशन (रसायन) मैत्री भावना के माध्यम से दिया है | यह मैत्री-भाव भेदभाव रहित, व बिना शर्त है | इसमें ना तो पापी और पुण्यात्मा में भेद किया है, ना ही ब्राह्मण शुद्र में, ना ही गरीब अमीर में, ना ही स्त्री पुरुष में |
बुद्ध "भेदवाद" (विचार) से तो असहमत हैं, पर भेदवादियों (मनुष्य) से नहीं | बहुत बारीक अन्तर है | बुद्ध "मन" से तो असहमत हैं, पर "चित्त" से नहीं | क्यों ? क्योंकि मन परिवर्तनशील (अनित्य) है, चित्त सनातन (एस धम्मो सनन्तनो) है | क्योंकि मन के बदलने की सम्भावना के आधार पर व्यक्ति को नहीं छोड़ा जा सकता है | व्यक्ति का विरोध न होकर, विचार का विरोध हो, सोच का विरोध हो, दृष्टि का विरोध हो | सभी व्यक्तियों के तो पक्ष में होना है, सभी व्यक्तियों के प्रति तो भले का भाव रखना है, तभी तो हम बुद्ध की मैत्री "भाव-भावना" का पालन कर पाएगें | नहीं तो सारा मिशन, धम्म के जीवन मूल्यों से भटक जाएगा | अम्बेडकरवादियों से चूक इसी बिन्दु पर हो रही है | उन्होंने "विचार के विरोध को ही व्यक्ति विरोध से जोड़ दिया है |" वे इस पहलू पर विचार करते वक्त अपने अन्दर द्वेष ले आए हैं | यही अलगाव व घृणा की जड़ बन कर अम्बेडकरवादियों की छवि खराब कर रही है |
बुद्ध की इस दृष्टि से प्रभावित होकर बाद में संतों की व नाथ पंथों की श्रंखला ने अपनी उदार भाषा में कुछ इस ढंग से अभिव्यक्त किया है | संतों ने कहा है, "पाप से घृणा करो, पापी से नहीं |" यही बुद्ध की व बाबा साहब की मूल देशना है | मेरी दृष्टि इसी पर आधारित है | मैं इसी पर चलते हुए आगे बढ रहा हूं |