नागरिक Facebook - 25 / 12 / 2014 To 10 / 5 /2015
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हे मेरी निश्छल नैतिकता , मुझे सत्य कथन के मार्ग पर अडिग रखना !
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* मैं भारत की महानता के बारे में सोच रहा था | इसने गौतम बुद्ध को विष नहीं पिलाया , सूली पर नहीं लटकाया !
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* मेरे पास कहने को बहुत कुछ होता है | लेकिन मैं अपना समय सुनने में ज्यादा लगाता हूँ |
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* मैंने बुढ़ापे का पूरा इंतज़ाम कर लिया है | मंकी कैप , ऊनी मोजा , चौड़ा मफलर , गर्म इनर , एक लोही, खादी का कम्बल , और सब |
लेकिन यह बुढ़ापा है कि ससुरा आता ही नहीं |
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* कोई सुनने वाला न हो, कोई सुने नहीं ; तो चिल्लाते रहिये - " हाय लैला ! हाय लैला ! " करते रहिये अभिव्यक्त ! क्या होने वाला ? इसलिए बोलने से पहले सुनने वाले का प्रबंध कीजिये | कोई सुनने वाला न हो तो मत बोलिए | इसलिए नहीं कि आपकी आजादी कहीं चली गयी है , बल्कि इसलिए कि बोलने से कोई फायदा नहीं है | यहाँ से एक और तरीका निकलता है | किसी की अभिव्यक्ति की आज़ादी छीननी हो तो उसकी बात अनसुनी कर दो | सुनो ही नहीं | वह बोलता रहे | क्या करेगा बोलकर ? उसका गला सूख जायगा और वह मर जायेगा | मैं मुसलमान होता तो शार्ली में यही करता | तो क्या एब्दो अखबार का नया अंक 11 लाख रूपये में बिकता , जैसा आज बिका ? किलो के भाव रद्दी में बिकता | भारत के ब्राह्मणों ने यही हथियार अपनाया | उन्होंने बुद्ध कबीर आंबेडकर आदि सबको खूब बोलने दिया , गाँधीजी और बाबा मार्क्स को भी | लेकिन सुनी किसी की नहीं |
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* पता नहीं क्या लोग Negative नास्तिकता , Positive atheism की बातें करते रहते हैं | दरअसल उनका उद्देश्य या तो नास्तिकता को नीचा दिखाना होता है, या उसकी खिल्ली उड़ानी होती है | कहें तो उनका स्वयं का attitude (व्यवहार) नास्तिकता के प्रति positive , सकारात्मक नहीं होता , वरना वे अपनी आलोचना का उत्तर स्वयं दे सकते थे | लेकिन स्वयं तो तमाम positiveness का झूठा दावा करने वाले धर्मों का तो कुछ बिगाड़ पाए, न उन पर ऊँगली उठाने का साहस | तो अब चले हैं निरीह नास्तिकता पर अपना ज्ञान बघारने और मढ़ने |
देखना चाहें तो देख सकते हैं कि धर्म तो स्वयं मानवता के negative हो चुके हैं | ऐसी दशा में यदि हम उन्हें नकारते हैं तो हमारा काम अपने आप धनात्मक , सकारात्मक , positive हो जाता है | क्या उन्हें पता नहीं minus multiplied by minus = plus होता है ? ऋण को ऋण से गुणा किया जाय तो संख्या धनात्मक हो जाती है ? सब जानते हैं , लेकिन उनका उद्देश्य इस पावन काम में रोड़े अटकाना, व्यवधान पैदा करना या इसे बदनाम करना होता है | इसलिए हम कहना चाहते हैं कि हम ईश्वर और धर्म जैसी चीज़ों को नकार कर एक सकारात्मक कार्य ही करते हैं , और यह नकारात्मक काम तो बिल्कुल नहीं है |
अब मेरा statement ध्यान से सुनिए | हम यही तो कहते हैं कि ईश्वर नहीं है , और मनुष्य है | तो मनुष्य के होने का क्या मतलब आप समझते हैं ? क्या हांड मांस का एक skeleton का खड़ा होना ? यदि आप यह समझते हैं , तब तो आप मनुष्य को बिल्कुल नहीं समझते | अरे , मनुष्य तो समुच्चय है दिल दिमाग का , अपनी समस्त बुद्धिमत्ता और संवेदनशीलता के साथ | धर्मों ने उसे ऐसा नही समझा, और उसे मात्र अपना खिलौना, कठपुतली और मनोरंजन का साधन समझा , जिससे मनुष्य का मानसिक विनाश हुआ | हम नास्तिकजन धर्मों के विपरीत मनुष्य को प्रकृति की एक अनमोल स्वतंत्र इकाई समझते हैं |
तो महोदय , मनुष्य के होने का मतलब ही उसकी सार्थकता होती है | निरर्थक तो वह पंथों, धर्मों और ईश्वर की गुलामी में होता है | स्वतंत्र मनुष्य जानता है , उसके होने का मतलब है कि उसके होने से क्या कुछ हुआ ? क्या वातावरण कुछ बदला ? मानवीय स्थितियां - परिस्तिथियाँ ? उसके पडोसी को, मोहल्ला, शहर को, समाज और देश को उसका होना कुछ फर्क लाया ? उसे इसके लिए सायास कुछ नहीं करना पड़ता , जैसे कि देश सेवा का दंभ इत्यादि | उसका स्वाभाव होता है उसका होना , और उसका होना सभ्यता और संस्कृति के लिए पर्याप्त होता है |ठीक है , अभी वह नया नया आज़ाद हुआ है , नास्तिकता का विचार nascent अवस्था है और उसकी खिलाफत, उस पर प्रहार अत्यधिक मात्रा में है | तो वह गलतियाँ तो करेगा , फिर सुधारेगा | लेकिन उसे मौका तो दिया ही जाना चाहिए , उस पर भरोसा लाया जाना चाहिए |
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( कहानी ) = " छिपाते तो नहीं ! "
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दलित सभा में नेता जी एक नये व्यक्ति को लाये | परिचय कराया , नाम - फलाने | हैं तो ब्राह्मण , लेकिन जात पात मिटाने के लिए अपना जाति सूचक उपनाम नहीं लगाते |
स्वागत है आपका !
दूसरे दिन पुनः नेता जी दुसरे व्यक्ति को लाये | यह हैं फलाने तिवारी | जात पात नहीं मानते |
प्रश्न - लेकिन नाम तो लगाते हैं ?
उत्तर - ये छद्म नहीं करते , दिखावा नहीं करना चाहते | छिपाते नहीं कि जन्म से यह ब्राह्मण हैं !
स्वागत है आपका ?- * * * * * * -
* किसी भले आदमी की कही यह बात आज ठीक समझ में आ रही है । दान तो वह कि एक हाथ से दो और दूसरा हाथ जान न पाये । दूसरे हाथ को पता न चले कि पहले ने किसी को कुछ दिया है ।
अच्छी बात है । बढ़िया सोच । तनाव मुक्त !
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* ( शब्दांकन )
पापा , आज मैं आपको याद कर रहा हूँ | इसलिए नहीं कि आज शब्बे बरात है | मैं इधर कई दिनों से आपको याद कर रहा हूँ , जबसे कड़ाके कि ठण्ड पड़ी है | ऐसा भी नहीं कि तुम नहीं हो इसलिए तुम्हे याद कर रहा हूँ ! तुम तो हो अभी जीवित और गाँव में , मैं जनता हूँ तुम कौरा ताप रहे हो | बस तुम्हारी याद आ गयी तो तुम्हे याद कर रहा हूँ |
मुझे याद आया पापा , जब तुम नौकरी पर थे | मैंने सुना था तुम्हे मम्मी से कहते , देखो सबके लड़के कैसा बाइक लेकर घूमते हैं , और हमारा इकलौता लड़का साइकिल से चलता है | ऐसा करो 100 - 200 रु महीने बचाओ और इसके लिए मोटर cycle खरीद दें |
मुझे हँसी आई थी पापा , तुम्हारे भोलेपन पर | मोटर साइकिल 100 - 200 रु बचाकर नहीं खरीदा जाता | और तभी मैंने संकल्प लिया था मैं मोटर साइकिल की माँग तुमसे नहीं करूँगा |
और मुझे याद है पापा | मेरी शादी के तुरत बाद जब मेरी पत्नी मेरे साथ मेरी नौकरी पर चली आई थी | तब गाँव के तुम्हारे एक दोस्त ने तुमसे कहा था | क्या इसीलिए पाला पोसा , पढ़ाया लिखाया, शादी ब्याह किया कि बूढ़ा बूढ़ी अपने हाथ से पकाएं तब खायें ?
मुझे पता है तुमने उन्हें जवाब दिया था - तो क्या इसलिए पढ़ाया कि गाँव में सड़ें और हमारे लिए रोटी बनायें ? अरे , तरक्की करने और बाहर जाने के लिए ही तो उन्हें पढ़ाया |
पापा , आज तुम बहुत याद आ रहे हो !
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* शादी ब्याह तो क्या , साधारण रहन सहन , किसी के संग हॉस्टल में रहना या यूँ ही हफ्ता दस दिन साथ रहना परस्पर आचार व्यवहार पर निर्भर होता है । तो दाम्पत्य जीवन का कहना क्या ? अख़लाक़ व्यवहार से चलता है , प्रथम दृष्टि के प्रेम से नहीं । पहली नज़र से बस पहला काम ही होता है , जिंदगी तो आचरण से चलती है । उसी से प्यार भी पनपता है, अपनापन और परस्पर लगाव ।
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* सरकारी कर्मचारियों को जितनी भी छुट्टियाँ दी जायँ , लेकिन इस सम्बन्ध में एक विनम्र निवेदन उन्ही की तरफ से करनी है । कि साल में कम से कम दो चार दिन तो छोड़ दिए जायँ , जिससे कर्मचारी दफ्तर जाकर उसके दरोदीवार देख लें, सहकर्मियों से मिल लें , अपनी नौकरी के कागज़ात सही कर लें , हाज़िरी रजिस्टर पर अपने नाम अंकित कर दें । और महीने में एक बार तो कार्यस्थल पर उपस्थित होना आवश्यक होना ही चाहिए जिससे वे अपने वेतन पंजिका पर हस्ताक्षर बना सकें ।
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* PK तू तो आयो नीके !
यह एक साधारण (नवीनता विहीन , क्योंकि ऐसे प्रहार फिल्मों में पर्याप्त होते रहे हैं ) मनोरंजक (हिंदूवादी नही लेकिन ) हिन्दू फ़िल्म है । वही हिन्दू जो धर्म नहीं जीवन शैली है । वहाँ कट्टरता का पाखण्ड-आडम्बर का, साम्प्रदायिकता का कोई स्थान नहीं हैं । यह एक पंथनिरपेक्ष फ़िल्म है । तो बोलकर तो कोई दिखाए कि यह हिन्दू नहीं है । तो मैं भी ज़रा परखुँ यह कितना धर्म है , कितना मजहब और कितनी जीवन शैली । या हिन्दू मजहबी यह तय कर चुके हैं कि उनसे अधिक अतार्किक और असहिष्णु किसी को नहीं होने देंगे ? इसमें तो सारे धर्मों के पाखंडों की आलोचना है । इसलिए यह धार्मिकों के लिए ही उपयोगी और फलदायी है । इसलिए यह धार्मिक पिक्चर है । और धार्मिकों का धार्मिक " हिन्दू " पिक्चर है । हम नास्तिकों के लिए इसमें कुछ भी नहीं है । इस विषय को तो वह छूता ही नहीं । वह तो कहता है उसे मानो जिसने हमें बनाया । हम ऐसा कहाँ कहते हैं ? इसलिए हमने फ़िल्म पर कुछ लिखा ही नहीं । और देख रहे हैं धार्मिक लोग इतने पर भी कैसे तो तिलमिला रहे हैं !
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* जो भी लोग धर्म को बचाने के काम में लगे हैं , वे देश दुनिया और इंसानियत के दुश्मन हैं ।
( इस कार्य में केवल आतंकवादियों को न जोड़ें )
* कौन कहता है कि ज़बरदस्ती धर्मपरिवर्तन और घरवापसी नहीं हो सकता ? धर्म का पालन तो ज़बरदस्ती करवाया ही जा रहा है ! बाबा लोग रथ में बैल नाधकर घर घर घूम रहे हैं । पूरा माता जी का मन्दिर , अमरनाथ धाम की अनुकृति रथ पर लादे मोहल्ले मोहल्ले , गली गली पहुँच रहे हैं और चंदा वसूल रहे हैं ।
अभी चार हृष्ट पुष्ट बाबा माता जी का दरबार लेकर मेटे दरवाज़े आये और पूरी दबंगई से प्रसाद लो पैसा दो चिल्लाने लगे । मैंने कई माफीनामा लगाया और अंत में कहना पड़ा - बाबा मैं इनमे विश्वास नहीं करता आप मुझे क्षमा करें । तब छुट्टी मिली । वे चले तो गए । लेकिन मैं कमजोर , निरीह , अकेला प्राणी भयग्रस्त हूँ । हो न हो , ये कहीं हमारी रेकी न कर रहे हों । और हमारा नुकसान कर दें । क्योंकि देखने में सब इतने पहलवान थे कि पूरे डाकू लग रहे थे । सरकार को ऐसे भिखमंगों से जनता को सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए ।
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* (विषय का अंतिम पोस्ट )
PK ने भी कण्डोम के सन्दर्भ में कुछ बातें कही थीं , कुछ प्रश्न उठाये थे ? किसी ने ध्यान दिया क्या ? गंभीर प्रश्न थे वे , चिंतनीय ! लेकिन कण्डोम की आड़ में , या काम विषयक होने के कारण उन्हें हँस कर टाल दिया गया । यह हमारी प्रवृत्ति है । मीठा मीठा गप , कड़वा कड़वा थू । किसी के प्रति गंभीर नहीं । न लोक के प्रति न परलोक के प्रति । न धर्म के प्रति न राजनीति के प्रति । न सम्भोग के प्रति न अध्यात्म के प्रति ।
याद है , रजनीश की एक किताब पर अच्छे अच्छे कामी बलात्कारी भी बड़ा नाक भौं सिकोड़ते हैं । बड़े पवित्र हैं वे । उसकी आलोचना से स्निग्ध समाज में क्या यौनिक दुराचरण में कोई कमी आई ? या यही कह दीजिये कि ऐसी पुस्तकों से ही बलात्कार को बढ़ावा मिला ?
पुस्तक मैंने नहीं पढ़ी । केवल शीर्षक ने मुझे तरुणाई में ही बदल कर रख दिया । संभोग तो सहज परिचय में होता है लेकिन समाधि अज्ञात । पर जाना तो है समाधि की ओर ! तो फिर समाधि को ही क्यों न साधा जाय ? समाधि उच्चतम सम्भोग है जहाँ सम्भोग की अवहेलना - वर्जना नहीं है । लेकिन यह हो जाता है दो नम्बर पर । बेमतलब , अनावश्यक आकर्षण विहीन । अध्यात्म अलौकिक प्रेम और सम्भोग की पराकाष्ठा है । अपनी मीरा बाई कोई मूर्ख मामूली संत नहीं थी । लेकिन उसे क्या सम्बोधन दिया समाज ने ? आज भी होती तो उसे कुलक्षिणी ही कहते ? यह फर्क है समझदारी का । इसमें मीरा का कोई दोष नहीं ।
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* झूठा प्रेम ही नहीं , हम झूठे झगड़े भी करते हैं । मैंने कई झगड़ोपरांत झगड़े के उत्स और विकास पर पुनरावलोकन किया तो पाया कि अरे , इस झगड़े और विवाद का तो कोई आधार ही नहीं था । बेकार , निरर्थक ही मैं तो झगड़ पड़ा !
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* इसी तरह कभी उपहार और उत्कोच के बीच, अंतर , अंतरसंबंध , उनकी श्रेष्ठता न्यूनता आदि पर भी कभी सोचिये ।
( शरीरी - अशरीरी प्रेम के उपरांत यह विषय सूझा । अभी मेरा ख्याल है कि उपहार और उत्कोच में बहुत अंतर नहीं है । पर उपहार सभ्य -शालीन है , जब की उत्कोच बदनाम । भले इसे देते लेते सभी हैं और इसीलिए घूस की प्रथा समाप्त होती तो दिख नहीं रही है ।
फिर विवादास्पद बात ! मैं उपहार पसंद नहीं करता ।)
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* न गंगी ( अपनी ) , न गंगा यमुनी , वस्तुतः हम दूसरों की संस्कृति जीते हैं | फिर मुश्किल हो जायगा समझना ? तो मैं कहता हूँ , हमें परायी संस्कृति जीनी चाहिए , व्यवहार में लानी चाहिए | अब इसे भी नहीं मानेंगे ? जब कि मैं संस्कृति का अर्थ कोई संस्कृतनिष्ठ नहीं , सामान्य - साधारण आचार व्यवहार से ही लगा रहा हूँ |
स्वभाव के विपरीत इसे थोड़ा विस्तार देता हूँ | जैसे जब हम किसी मुस्लिम मित्र से मिलते हैं तो हम उससे हाथ मिलाते हैं, उससे आदाबअर्ज़ कहने में भी संकोच नहीं करते | बतायें संस्कृति संरक्षक कि इसमें हम अपनी हेठी क्यों नहीं समझते, जब कि यह आचार तो परायी संस्कृति की है ? आपकी संस्कृति तो पैर छूने की है , तो मुसलमान के पैर क्यों नहीं छूते ?
इसी प्रकार यदि हम किसी अँगरेज़ महिला को चूमकर अभिवादन करते हैं तो यह भी उसकी संस्कृति के अनुसार करते हैं | लेकिन यही व्यवहार हम किसी पाकिस्तानी / अरबी महिला के साथ नहीं दुहराते , क्योंकि यह उनकी संस्कृति के अनुकूल न होगा |
जो अपनी संस्कृति की शुद्धता और संरक्षण के काम में नेत्र बंद करके लगे हैं , उन्हें समझना चाहिए कि संस्कृति और सभ्यता की उत्कृष्टता इसी में है कि वह दूसरों की संस्कृति का आदर ही नहीं बल्कि उसके साथ उसका पालन भी करें | सारी संस्कृतियाँ समस्त संस्कृतियों का देश काल और अवसर के अनुसार पालन करें , यही सच्ची संस्कृति है |
( "शायद", जोड़ दूँ , वरना क्या पता मेरी बात गलत ही हो
-----------------------------------------------------------------* पता नहीं मैं अपनी बात ठीक से कह नहीं पाता या मित्र अपनी बनी बनाई धारणा और कथित नैतिक पूर्वाग्रह के चलते मेरी बात सुन नहीं पाते, और विवाद फैला देते हैं | जब मैं कहता हूँ कि मैं प्रेम को सम्भोग ही समझता हूँ , और प्रेम कुछ नहीं होता | और फिर जब पलट कर कहता हूँ कि मैं सम्भोग वाले प्रेम को कोई महत्व नहीं देता , प्रेम वाले सम्भोग में मेरी सारी तृषापूर्ति हो जाती है |
इसका कारण यह है कि सम्भोग वाला प्रेम तो व्यक्ति एक बार में केवल एक के साथ कर सकता है | जब कि मैं प्रेम वाला सम्भोग एक ही समय में, एक ही अवसर में, एक ही साथ करोड़ो के साथ कर सकता हूँ | वैसे भी लाख चाहकर भी आखिर कोई एक दिन में कितने सम्भोग संपन्न कर सकता है ? ऐसी दशा में वह निश्चय ही अत्यंत सीमित और संकुचित ही होगा | जब कि यह सृष्टि, यह प्रकृति तो अनंत - अविरल - अविराम सम्भोग से सृजित और संचालित है ! अविचल परस्पर आकर्षणबद्ध !
तो बताइए , कौन सा सम्भोग अधिक आनंददायक है ? इसलिए मैं सम्भोग वाले प्रेम से विरत , प्रेम वाले सम्भोग में सतत रत रहना चाहता हूँ | और तब कहता हूँ , सम्भोग कोई पाप , कोई घृणित व्यवहार नहीं है | ****
और फिर चिड़ियों से , पेड़ पौधों से या समलिंगी से क्या सम्भोग करते फिरेंगे ? इसलिए मैं कहता हूँ सम्भोग को मारो गोली | यही जो प्रेम है स्नेह है , संग साथ है , इसीको सम्भोग समझो | अब प्रश्न करोगे इसे सम्भोग क्यों समझें ? वह इसलिए कि ऐसा न समझोगे तो तो तुम फिर सम्भोग के पीछे भागोगे और अपूर्ण रहोगे सदा | हमारे नैकट्य , सान्निद्ध्य को ही सम्भोग समझो | Vs Yadav आप तो मेरे घर आते हो , बिना किसी वैचारिक साम्य के भी आदरभाव रखते हैं, मैं आपसे जातीय भिन्नता के बावजूद स्नेह रखता हूँ | सब मेरे लिए प्रेम की पूर्णता है , सम्भोग के समान , मेरे घर आने वाली महिलाओं और कन्याओं के साथ भी | सब मुझसे निडर निर्भय रहती हैं, उन्मुक्त मिलती हैं | क्योंकि मुझे उससे आगे सम्भोग की कोई चाह नहीं, प्यास नहीं, कुत्सित ज़रूरत नहीं | महीन बात तो है कि यदि मैं इस स्थिति को सम्भोग न समझूँ तो मैं प्रेम और स्नेह को विकृत करने की ओर अग्रसर हो जाऊँगा सेक्स के लिए | अनुभूति ही तो है , जो हमें अंतर पर खड़ा करता है |
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* ( लगता तो है ! )
जैसे विचार करना , वैसे ही प्यार करना । विशिष्ट कार्य हैं ये । प्यार मनुष्य का उच्चतर अविष्कार है, सम्भोग के आगे । विचार व्यक्ति का उत्कृष्ट अनुसंधान है, सोचने से पृथक । यह सब के वश का नहीं होता । सब नहीं कर सकते इसे । जैसे सब आदमी संत नहीं होते । हर कोई वैज्ञानिक नहीं होता । हर कोई हल नहीं चला सकता । राज्य-चिंतन भी सबका काम नहीं होता । फ़र्ज़अदायगी में या मजदूरी के लिए अथवा किसी दबाववश लोग करते हैं । और इन्हें बिगाड़ कर रख देते हैं । जैसे मठ मंदिरों के पुजारी । विज्ञान संस्थाओं में काम ( नौकरी ) करने वाले वैज्ञानिक । दर्शन शास्त्र के अध्यापक दार्शनिक । वोट जीतकर आए सद(य)नीय { अथवा (अ)संसदीय } नेता । सड़क के सिटियाबाज मँजनू बलात्कारी !
(गलत बात ? )
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* मैंने सोचा
मुझे प्यार करना चाहिए
और मैं प्यार करने लगा
इस दुनिया से , आसमान
चाँद और तारों से
पृथ्वी के मनुष्यों से
गाय और सूअर से
नदी ताल पोखर से
उस घोंसल में बैठी चिड़िया से
उसके छोटे छोटे अण्डों से ।
मुझे हँसी आ गयी सोचकर
ऐसे ही एक अंड से
मैं भी तो पैदा हुआ !
मैं खुद से प्यार करने लगा
अपना होना मुझे अच्छा लगा
मेरा दिल धड़कने लगा
दिमाग काम करने लगा ।
मैं सोचता हूँ , यदि मैंने
प्यार करने का विचार
न किया होता तो
सुंदर होती क्या यह दुनिया
क्या मैं खुश होता
क्या जीवन जी पाता ?
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* सहानुभूति के शब्द कहो ,
कभी कभी दुहराते रहो
वही ठीक है ;
कोई दवा न दो
कोई औषधि
तजवीज़ न करो ,
यह दर्द
जाने वाला नहीं है |
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* बड़ी सेवा की
विज्ञान ने हमारी
जय विज्ञान !
* मिलते रहे
मिलने आते रहे
शुक्रिया मित्रो !
* झगड़ा सारा
इधर उधर से
संपत्ति का है ।
* मँहगाई है
* प्रेम कीजिये
परिभाषित कीजिये
फिर प्रेम को !
* काम देवता
तुम अपवित्र हो
कलियुग में !
* भाषण में तो
हम यही कहेंगे
बाद में कुछ !- - - - -
* मैं भला कौन सा बड़ा भारी तीर मारता हूँ ? ज़िन्दगी की , मनुष्य के मन की गलतफहमियाँ ही तो दूर करता हूँ ! और उसके लिए पहले अपने आप से कितना , एक दो नहीं , सालों साल जूझता हूँ । और पहाड़ खोदते खोदते कोई चुहिया ही तो निकलती है ! अब वह चुहिया भी किन्ही को अंधों की हाथी के समान लगे तो तकलीफ तो होती है ।
जैसे यही साधारण सी बात ! कि यह प्यार का शब्द कितनी लड़कियों की ज़िन्दगी बरबाद कर रहा है , क्या हम नहीं देखते ? प्यार के चक्कर में शोषित होती हैं और उनका प्यार पेट में एक बच्चा डालकर , या फिर चेहरे पर तेजाब फेंककर चलता बनता है ।
लड़के भी शोषित होते हैं । इस गलतफहमी में कि यही तो प्यार है , सड़कों से पर्स लूट बाइक चुराकर लड़की पटाते हैं । वह रफूचक्कर हो जाती है तो बेवफाई के दर्द भरे सिनेमाई गाने गाते , दाढ़ी बाल बढ़ा मजनू बनते , परिवार का सुख चैन छीनते , और अपना कैरियर बिगाड़ते हैं । वह प्रतिभा तो राष्ट्र-समाज निर्माण के लिए कीमती है , फ़िज़ूल गवांते है । और हासिल कुछ नहीं । तो क्या इस पर ध्यानाकर्षण करना कोई गलत बात है ?
इसी प्रकार औरतें और पुरुष ईश्वर भगवान के चक्कर में अपना समय गवांते हैं । तो हम उसके प्रति भी उन्हें आगाह करते हैं । ऐसा नहीं कि हम कोई संत महात्मा , समाज सेवक और दिशानिर्देशक हैं । हम भी मानव समाज के एक छोटे अंश हैं , उन्ही के बीच के हैं । मनुष्यों से लगाव के कारण हम अपना फ़र्ज़ निभाते हैं । चाहते है कि हम मनुष्यों में बुद्धि और हृदय का संयम कायम रहे । शायद इसी को सभ्यता और संस्कृति कहें !
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* मेरे लिहाज़ से तलाक़ स्त्री का सबसे बड़ा अपमान है । मैं इसका सख्त विरोधी हूँ । जैसे हम जिस माँ बाप से पैदा होते हैं , जैसे भी हमारे भाई बहन , चाचा चाची , मौसा मौसी , फूफा फूफी हमें मिल जाते हैं । तो क्या हम उन्हें बदल सकते हैं ? पत्नी को बदल सकते हैं यह option गुंजाईश तो है । लेकिन इस अधिकार का दुरूपयोग करना औरत के प्रति अपराध है । प्रकृति , जो कि स्वयं नारी रूप है , का घोर अनादर । माँ को नहीं बदल सकते तो पत्नी भी आधी चौथाई माँ ही होती है । बल्कि वह " माँ भी होती है " के साथ साथ ज़िन्दगी की अन्य ज़रूरतें भी पूरी करती है । संतति पैदा कर पीढ़ी और सृजन को आगे बढ़ाती है , पारिवारिक वातावरण देती है । हमारे संस्कृत हिंदी उर्दू के कविता कहानी करने वाले जैसे लोगों ने माँ की खिदमत में इतने कशीदे गढ़ दिए कि बाप तो खैर चारपाई के नीचे हो गया , उससे पत्नी का स्थान पतित हो गया , जब कि वह भी एक औरत होती है । इससे मुझे एतराज़ है । ठीक है माँ का स्थान आदरणीय है , तो पत्नी भी तो माँ बनती है , अपने बच्चों की माँ ! उसका दर्ज़ा दोयम क्यों ?
व्यतिगत उदाहरण दूँ , यद्यपि इससे मित्र चिढ़ते हैं और वैयक्तिक होने लगते हैं । लेकिन बताऊँ कि हमारे घर में झगड़े बहुत हैं । मेरा दाम्पत्य जीवन सरस और सुखी नहीं है । कभी मैं अपनी चारपाई अलग करता हूँ , तो कभी चौका अलग कर केवल चाय नहीं खाना भी बनाता हूँ ( वैसे भी नॉनवेज के लिए अलग होना पड़ता है ) । कभी कभी तो लगता है कि खून खच्चर की नौबत आ जायगी । हत्या और आत्महत्या का भी विचार सूझता है । लेकिन मैंने अपने आपको अपने विचारों से इतना conditioned किया हुआ है कि पत्नी से तलाक लेने की बात मेरे मन में कभी नहीं आई । अरे भाई रहो , जैसे भी रहो ! कहीं भी जाओगे क्या सुख ही सुख मिलेगा ? इसीलिए मेरा मन पत्नी के अलावा किसी और से प्यार के अखबारी और साहित्यिक किस्से मंजूर नहीं करता । हाँ सेक्स करना हो कर आओ , वह प्रेम थोड़े ही है । प्रेम करना है तो अपने घर से करो , बच्चों से करो , देश दुनिया समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से करो ।
लेकिन विडम्बना ! सेक्स के प्रति इतने थोड़े से मेरे आज़ाद ख्याल को पचाने में लोगों को पता नहीं क्या मुश्किल आ जाती है ? जब कि मुझे पता है व्यवहार में तो लोग करते हैं ऐसा । यह प्रसन्नता की बात है
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* आज का अंतिम पोस्ट
प्रेम और यौन संबंधों पर इतने पवित्र पोस्ट्स & कमेंट्स देखकर मैं कुछ हीन भावना से ग्रस्त हो रहा हूँ । सोचता हूँ कि इतनी बड़ी दुनिया में क्या मैं ही अकेला कमीना व्यक्ति हूँ ? कमीनासम्राट ! क्योंकि और कोई तो ऐसा नहीं , या दिखता नहीं है ।
और याद आता है एक शायरा का अद्भुत शेर =
" मैं अपने खून के धब्बे कहाँ तलाश करूँ /
तमाम लोग मुक़द्दस लिबास वाले हैं । "
सुकून लेना चाहता हूँ सोचकर , चलो मेरे अलावा तो लोग सही सोचते , सही मानते , सही करते हैं ! मेरे अकेले के बिगाड़ने से दुनिया बिगड़ने तो न पायेगी !
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* क्या विवाहित स्त्री पुरुष अपने पति /अपनी पत्नी से इतर भी प्रेम कर सकते हैं ? करते हैं तो अपने आसपास देख कर बताइये कि उस प्रेम का प्रकार, उसकी अभिव्यक्ति , उसकी परिणति क्या होती है ?
जी वह सिर्फ कामसुख और ऐयाशी होती है । पत्नी के अलावा हम और किसी से प्यार कर ही नहीं सकते सेक्स की भूख के अलावा ! और हम पत्नी से प्यार इसलिए करते हैं क्योंकि हम सेक्स के लिए अन्योन्याश्रित हैं ( और ज़िन्दगी की ज़िम्मेदारियों में भी )।
तो इस प्रकार , विवाहेतर सम्बन्ध सेक्स सम्बन्ध ही होते हैं ( सुविधा के लिए प्रेम कहिये या कुछ भी ) । क्या किसी विवाहेतर सम्बन्ध को सेक्सविहीनता पर आधारित होते / निभते देखा जाता है ?
अब यूँ सहज मैत्री , सहयोग , स्नेह , आदर ,सदभाव जनित रिश्तों की बात और है । लेकिन तब उन्हें विवाहेतर सम्बन्ध कहना उचित न होगा , और वे वैवाहिक जीवन में बाधक भी नहीं होते ।
तो जिस प्रकार विवाहितों में विवाहेतर सम्बन्ध सेक्सविहीन नहीं हो सकते , उसी प्रकार अविवाहितों के मध्य भी जो कथित प्रेम होता है वह भी काम के लिए , काम में परिणत होने के ही निमित्त होता है ।
इसमें सफल हो गए , ख़ुशी खुर्रम शादी हो गयी तो वाह वाह । वरना इसमें असफलता को सहना आसान नहीं होता ।
और इस वियोग को सहने में यह मन्त्र अत्यंत सहायक हो सकता है क़ि - " अरे यार , यह प्रेम व्रेम कुछ नहीं था । केवल शरीर की चाह थी । छोड़ो , जाने दो ! क्या उस पर एसिड फेंकना ? क्या उसके लिए आत्महत्या करना ? "
अब बात ज़रा दकीयनूस हो जायगी । क़ि पुराने ज़माने में शादियाँ इसीलिए सफल होती थीं , पारिवारिक जीवन सुखी होता था क्योंकि तब प्यार का इतना चक्कर नहीं होता था । शरीर की भूख सभी जानते थे और जिससे भी विवाह हो जाय उसी को उसका भागीदार मानते थे । विवाहेतर सम्बन्ध तब भी प्रेम नहीं , सम्भोग ही होता था ।
वे अनजाने में ही ओशो का " विकल्पहीनता ( choicelessness ) एक वरदान है " का पालन करते थे । और लगभग तो सुखी ही रहते थे । तंब न उन्हें प्रेम में पागल होना था , न बलात्कार करना , न एसिड फेंकने की ही उन्हें ज़रूरत महसूस होती थी ।
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* हाय , कितना तो नाटक करना पड़ता है प्यार का , एक सेक्स पाने के लिए ! कितना छल - छद्म , दंद-फंद , कितना वाग्जाल फैलाना होता है , धुएँ के कितने जलविहीन बादलों का वितान खड़ा करना होता है ! ऐसे में झूठ फरेब और अपराधों का घटित होना असम्भव नहीं रह जाता । लेकिन करें भी क्या ! सीढ़ी उँगली घी भी तो नहीं निकलती !
और ऐसा नहीं कि सिर्फ धोखे देते ही हैं ! जाल फ़ैलाने वाले खुद भी तो अपने बनाये जाल में फँसते हैं और गम्भीर धोखे खाते हैं । तब उनकी आँख खुलती है । और खुलती कहाँ है ? वह तो हमेशा के लिए प्रायः बन्द हो जाती है , क्योंकि तब तक तो आत्महत्या का विद्रूप उन्हें अपने आगोश में ले लेता है ।
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* मम प्रिय ब्योमदेव जी, आप कहते हो तो पुनर्विचार का वादा तो करना ही पड़ेगा | लेकिन आप की प्रथम पंक्ति ही पर्याप्त खटकनीय है | - " प्रेम, सेक्स तथा विवाह तीन भिन्न चीज़ें हैं । " संभव है हो ! लेकिन मेरे दर्शन के गुरुओं ने तो मुझे सिखाया है कि यह अलगाव की दृष्टि पाश्चात्य चिन्तन की देन है | भारतीय दर्शन चीजों को अलग अलग देखने- परखने कीशिक्षा नहीं देती | ( यद्यपि मैं दोनों से थोड़ा सा सहमत असहमत हूँ | मैं पूरब-पश्चिम का भी भेद नहीं मानता ) | इसकी परख यहीं कर ली जाय | तीनों अलग चीज़ें हों तो भाई लोगों की तो बन ही आये | प्रेम किसी से , सेक्स किसी से और विवाह किसी से ? दोनों हाथों में लड्डू नहीं , एक एक हाथ में तीनतीन लड्डू ! यदि आप इस मत पर दृढ़ हों तो मैं आप के साथ हूँ | चलिए इसका प्रचार किया जाय | आप गुरु होंगे , मैं आपका चेला | और हम ओशो से भी अधिक लोकप्रिय हो जायेंगे |
तो समग्र भारतीय दृष्टि से हम विवाह नामक संस्था में तीनों कि घालमेल खिचड़ी बनाने को सोच रहे थे | यद्यपि मुझे तो तीनों में केवल कामदेव की व्याप्ति ही सूक्ष्म लगती है | मानो प्रकृति का मूल , ग्रहों नक्षत्रों के बीच आकर्षण , विज्ञान के शब्द में gravitation - गुरुत्वाकर्षण ! आकर्षण ही तीनो का आधार ! आपकी Pythagoras वाली बात ज्यादा गरिष्ठ तकनीकी है | इससे मिलता जुलता एक वाकया बताता हूँ | मैं आश्चर्य में था जब नागासाकी हिरोशिमा बमसंहार का दोष लोग E = mc2 ( square) पर नाजिल करते हैं | कहाँ आइंस्टीन नामक महावैज्ञानिक , और कहाँ एटम bomb ? फिर भी जुड़ गया ! और आप कहते हैं चीज़ें अलग हैं ? मेरे लखनऊ के ही एक अग्रज विचारक , जिनसे मैंने अपनी युवावस्था में वैज्ञानिक सोच पायी , का तो कहना था कि कोई विषय भी अलग नहीं होते , विज्ञान गणित इतिहास भूगोल कला साहित्य - - सब ,| शिक्षण की सुविधा के लिए कक्षा के कमरे अलग करके गलत करते हैं हम | और उनकी बात को हमने सत्य भी पाया | प्राचीन काल में ऋषि मुनि साधक संत होते थे | वह साहित्यकार कविराज होते थे , और कविराज ही वैद्य चिकित्सक होते थे , वैद्य जी दर्शनशास्त्री और वैज्ञानिक इंजिनियर भी और तो क्या क्या होते थे | क्या नहीं ? आज बहुत दिन बाद आपसे बात करके आनंद आया | मतभेद अलग लेकिन उसका तरीका तो हो | आओ देखिये आपसे पहले माननीय श्रीश्री Awanish P. N. Sharma जी ने कितनी शिष्ट भाषा का प्रयोग किया | आप उन्हें नहीं जानते ? वह भारतीय संस्कृति के महान विद्वान् और सक्रिय कार्यकर्ता और नेता हैं | अब इति ! आज sunday है , मित्र आ गये हैं , संभव हो तो आइये | लेकिन शीत बहुत है | आज स्वामी संकल्प जी भी नहीं आयेंगे | रहने दीजिये |
परिवार को , या एक में कह दें - बहू- बेटी को नए साल की शुभकामना !
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विश्लेषण की दृष्टि ही (analysis) पृथक्करण की होती है । और तीनों तत्वों का योग वर्जित नहीं है, पर फ़र्क तीनों के संयोग से compound (यौगिक) अथवा mixture (मिश्रण) बनाने का है । जहाँ यौगिक एक सुदृढ़, सुंदर व स्थायी योग है, वहीं मिश्रण एक बेमेल खिचड़ी । किन्तु बात तीनों तत्वों के अपने मुक्त अस्तित्व की फिर भी रहेगी । दरअसल, मानव के अस्तित्व (existence) के ही कई आयाम हैं (यह दर्शन है), और हर आयाम से संबंधित उसकी needs या आवश्यकताएँ बदलती हैं । इसे क्रमिक विकास (hierarchical needs) के रूप में भी देखा जा सकता है - 1. Physiological existence (जैविक, भौतिक, शारीरिक) जिसमें सेक्स एक need या ज़रूरत है । 2. Social existence (सामाजिक) जहाँ "एक जीवन साथी का होना" अपने संपूर्ण रूप में बस एक मानवीय आवश्यकता की अभिव्यक्ति है, वहीं विवाह एक मानव निर्मित संस्था है जो समाज के स्तर पर इन आवश्यकताओं को व्यवस्थित करने का माध्यम मात्र है । 3. Spiritual existence (सूक्ष्म, आत्मिक, आध्यात्मिक) जहाँ पर मानव जीवन के उसी सूक्ष्म अस्तित्व की ज़रूरत "प्रेम" के रूप में अभिव्यक्त होती है । कुछ लोगों का मानना है कि यह क्रमिक विकास (hierarchical) का मामला है, हर आयाम से संबंधित need पूरी होने पर ही अगले आयाम पर पहुँचा जा सकता है । प्रेम एक मानवीय आवश्यकता (human need) है, जो सेक्स और विवाह की आवश्यकताओं से उच्चतर आवश्यकता है । इसे नकारने का अर्थ होगा कि हम मानव के उच्चतर (सूक्ष्म) अस्तित्व को नकारना होगा । बाकी, अभी आता हूँ आधे घंटे में
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सम्प्रति सहमत, सहमत, सहमत ! चलिए - " प्रेम एक मानवीय आवश्यकता (human need) है " , या जीवन की सहजता ? " आवश्यकता " तो फिर Utilitarianism में बदलकर उपभोग का रूप न धारण कर ले , यह आशंका है | बहरहाल अब तो आप आ ही रहे हैं |
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वैसे इस विषय को चुनना, फिर उसे व्यावहारिकता के धरातल पर रौंदना, सामाजिक रूप से ठोक-पीट देना (या पिटवा देना), फिर उसके वृहत स्वरूप को भी जागृत करना, और इस प्रक्रिया में कई प्रतिक्रियाओं को बुनते हुए नए दृष्टिकोण की ओर ले जाना - इसकी हिम्मत (हिम्मत का ही काम है) कोई "उग्रदेव" ही कर सकता है
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हम कोई छिछले वैचारिक प्रतिद्वंद्वी तो नहीं ! आपको सहमतियाँ मिलीं इसकी मुझे ख़ुशी है । आखिर मैंने भी तो पर्याप्त असहमतियाँ बटोरी हैं
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क्या यह सम्भव है कि इनबॉक्स में हुई दो मित्रों की बातचीत को कोई तीसरा ले उड़े और उसका अपने हिसाब से दुरूपयोग करे ?
क्या कोई बताएगा ?
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PK अच्छी है , बुरी ; किसी की भावना आहत होती है या नहीं , यह अलग प्रश्न है । लेकिन प्रश्न यह है कि इसके लिए आमिर खाँ को क्यों प्रमुखता से कटघरे में खड़ा किया जा रहा है ? क्या मुस्लिम नाम होने के कारण ? यह तो साम्प्रदायिकता होगी ।
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घर वापसी तो पर्याप्त हो ही रही है । ऐसे में PK फ़िल्म के जो हिन्दू सहभागी हैं , उन्हें " घर बाहर " किया जा सकता है ।
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पहले आम बात थी । अब भी कुछ लोग करते हैं कि खाने से पहले भोजन की थाली को छूकर प्रणाम करते हैं ।
अब भोजन करने से पूर्व, मित्र लोग दस्तरखान का चित्र फेसबुक पर डालते / डालती हैं !
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कभी कहावत थी - " ----------निषिध चाकरी भीख निदान " ।
अब वह दिन शीघ्र आने वाला है जब पत्रकारिता एक नीच कर्म में बदल जायगा ।
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* झगड़ा सारा
इधर उधर से
संपत्ति का है ।
* दौरे ज़िन्दगी
प्यार शुरुआत है
पलँग अंत ।
* सुनेंगे पक्का
सहमत हों , न हों
आपकी बात !
* मैं सोचता हूँ
व्यक्ति से हटकर
कब सोचूँगा मैं !
* स्वार्थ से मुक्ति
पायें तब न सोचें
देश की बात !
*
सेक्स के पूर्व
फोरप्ले का दूसरा
नाम है प्यार !
* अल्प था स्पर्श
परन्तु स्पर्शाघात !
प्राण घातक |
* पता नहीं क्या
उनके मन में हो
ज्यादा न खुलो |
बहुत किया
अब नहीं करूँगा
किसी के लिए |
कहाँ से कहाँ
पहुँच गये हम
एक दौड़ में !
मैं भी कहता
पढ़ो पढ़ो जी, पढ़ो
पहले पढ़ो |
दिखाओ मत
तुम मजबूर हो
मजबूत हो |
धैर्य चाहिए
दुनिया में रहना
चाहते यदि |
धैर्य चाहिए
आदमी में भले ही
बुद्धि कम हो |
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जानामि , Knoweth
उदास - Un-democratic, Atheist secular
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कुछ बनना
झगड़े की जड़ है
हिंदु मुस्लमाँ !
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Body Donation
देहदान , L-5/185/L , लखनऊ - 24
उग्रनाथ श्रीवास्तव (देहदान पंजी सं-BD 239 )
* धर्म की राजनीतिक भूमिका समाप्त कर दी जाय तो न धर्मान्तरण का झगड़ा होगा , न अधर्म का विकास । और इसका सबसे बड़ा कारण है लोकतंत्र में मुंडों का गिना जाना । तब जनसंख्या बढ़ाना आवश्यक हो जाता है । अब इसके दो तरीके बनते हैं । एक संतति उत्पादन में अभिवृद्धि , दूसरे धर्मान्तरण । और वही हो रहा है । जो विषाद विवाद का कारण बन रहा है ।
यह समाप्त होगा धर्माधारित जनगणना रोकने से । हिन्दू जीवन शैली है ।अभी अख़बार में पढ़ा ईसा एक जवन शैली का नाम है । तो Life style का कालम रखो न ! धर्म क्यों रखते हो ? धर्म को आस्था से जोड़कर सच पूछें तो न्यायपालिका भी घेरे में आ गयी है । उसके पास भी आस्था पैमाइश का कोई यंत्र नहीं है । फिर वह कैसे तय करेगी कि धर्मपरिवर्तन उचित हुआ या अनुचित ? और यह किसिं किसी लाभ के चक्कर में ही होगा यह भी तय है । चाहे बहुविवाह , धन नौकरी राशन कार्ड हो , या उच्च स्तर पर स्वर्ग और हूरों की उम्मीद ।
तो धर्म संबंधी सभी लाभ बन्द किये जायँ , मठों मंदिरों से टैक्स लिए जायँ । हज सब्सिडी यात्रा लाभ बन्द । टूरिज्म deptt जाने । संविधान संरक्षित धर्मादा संस्थाओं स्कूलों के विशेषाधिकार समाप्त । बहुत हो गयी charity । आज क्रिसमस day पर लिख रहा हूँ । मिशनरीज़ charity के लिए ही ख्यात हैं । सराहनीय है , लेकिन वह निष्मन्तव्य नहीं होता । उनकी भी मूल नीयत conversion ही होती है । इनके विरोध में ही पश्चिम में secularism का उदय हुआ था । तो आप भले गाली देते रहिये इसे । लेकिन इसके बिना धार्मिक समस्याओं से कोई निजात नहीं है ।
* कोई मुझे देख रहा है , इसलिए मुझे अच्छे काम करने चाहिए | और इसलिए हम अच्छे काम करते हैं एवं बुरे कामों से बचते हैं ( यहाँ अच्छे बुरे से अर्थ कथित अच्छे बुरे से है ) | इसे कहते हैं आस्तिक धार्मिकता या नैतिकता |
लेकिन मुझे कोई देख नहीं रहा है , न मेरे व्यवहारों का कोई गवाह है | मेरे ऊपर किसी राजकीय सिपाही या आकाशी देवता की नज़र नहीं है | बिल्कुल गुप्त रहेगा मेरा काम और मुझे कुछ भी करने से कोई रोके टोकेगा नहीं | तब भी मैं अच्छे काम करता हूँ , और अनीति परक कार्य व्यवहारों से बचता हूँ | ( यहाँ अच्छे बुरे से मतलब व्यक्ति की अपनी स्वयं की समझदारी से सुनिश्चित अच्छाई बुराई है ) | तो यह हैं नास्तिक धार्मिकता | लेकिन चूँकि धर्म और धार्मिकता को कथित आस्तिक धार्मिकों ने इतना दूषित और कुख्यात बदनाम किया हुआ है कि हम अपने कार्यों को नास्तिक धार्मिक न कहकर नास्तिक नैतिक , atheist ethical / secular morality बोलते हैं | तथापि हम इसे नागरिक नैतिकता / नागरिक धार्मिकता कह सकते हैं | और हमारी संस्था हो सकती है / है = नागरिक धर्म समाज |
* हम इस जीवन शैली नामक जीव से बहुत परेशान हैं | संघ परिवार से लेकर सेकुलर न्यायपालिका तक ने हिन्दू के विषय में इसे ऐसा होना स्वीकार किया हुआ है | और अभी क्रिसमस पर अखबार का एक शीर्षक था - " ' ईसा ' एक जीवन शैली का नाम है " | आखिर कितनी जीवन शैलियाँ हैं ? वह तो लगभग थोड़े बहुत अंतर के साथ हर व्यक्ति की अलग अलग होती है | तो क्या सबके अलग अलग धर्म हैं ? वाह ! क्या कहने ! यदि ऐसा होता तो हम प्रसन्नचित्त होते | गाँधी जी ने भी भले जीवन भर धार्मिक लीपापोती की , लेकिन अंत में कहा - " There are as many religions as there are minds . " | अब सवाल यह है कि धर्म व्यक्तिगत कहाँ होने पा रहा है ? ज़ाहिर है , इस परिभाषा में कहीं कोई खोट है | क्योंकि इनकी गिनती भी धर्मों में होती है और कहीं भी कोई census जीवन शैली Lifestyle पर नहीं होती ! इतने तो भोले नहीं हैं ये ! जी नहीं , वे हमें ही मुर्ख समझते हैं , या मूर्ख बनाना चाहते हैं |
तो चलिए मुर्खता को थोड़ा Try मारा जाय ! नास्तिक आस्तिक हिन्दू छोड़िये , अभी हम कुछ लोगों ने मृत्योपरांत अपने देहदान का संकल्प लिया है | निश्चय ही यह महत्वपूर्ण जीवन शैली है | दफ़नाने के तरीकों में ही तो हिन्दू मुसलमान शिया सुन्नी मोमिन अन्सार सब अलग होते हैं | तो क्या हमारा धर्म अलग हुआ ? फिर इनमे भी कुछ शाकाहारी हैं तो कुछ मांसाहारी और कुछ आधे आधे | कुछ को बवासीर है , उसमें भी कुछ को खूनी है तो कुछ को बादी | कुछ मद्द्यपायी हैं , कुछ धूम्रपानी , तो कुछ टीटोटलर | इत्यादि !
और आइये | कुछ " परहित सरिस धर्म नहीं भाई " वाले हैं , तो कुछ " सेवाहि धर्मः " वाले , और " अहिंसा परमो धर्मः " वाले | तो क्या वे ईसाई हुए ? और कुछ मेरे जैसे " रमन्ते तत्र देवताः " करने के लिए " यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते " करते हैं | क्या हम शिखंडी हुए ?
तो यह हाल है जीवन शैलियों के | सबको दर्ज किया जाय ? है इतना बड़ा रजिस्टर सरकार के पास ? यदि ऐसा है तो फिर सबको " वे " हिन्दू कहलाने पर क्यों तुले हैं ? यह हिन्दू क्या है यदि धर्म नहीं है ?
इसी का लाभ इस्लाम उठाता है | जहाँ कोई लफ्फाजी नहीं हैं , जो है सब साफ़ है स्पष्ट है | आप सहमत हों , असहमत | वह धर्म religion मज़हब सब है / होना स्वीकार करता है | शुभनामी बदनामी सब अपने सर पर रखता है |
अच्छा , कोई बताये कि यदि यह धर्म नहीं है , तो फिर वह " धर्मवा " क्या है , कहाँ है , किस चिड़िया का नाम है , जिसके लिए , जिसके रक्षण - संरक्षण के लिए " लोगवा " जान देते फिर रहे हैं ? घर वापसी करा रहे है , हिन्दू एकता के लिए दिन रात एक कर रहे हैं ?
सबको , एक एक व्यक्ति को अपनी जीवन शैली जीने क्यों नहीं देते ?
* ईश्वर , धर्म , पूजा पाठ , पाखण्ड , अंधविश्वास , आदि की आलोचना करने में कोई हर्ज़ नहीं है , और वह हमें एक ज़रूरी काम भी लगता है | लेकिन इसमें नुकसान यह होता है कि अपने ही लोग दूर होते हैं , और यह अपनों का बिछड़ना बड़ा दुखदाई होता है | अपने परिवार , परिजन तो रुष्ट होते ही हैं , गाँव , समाज , शहर , देश विश्व की महिलायें हमें अस्वीकार कर देती हैं | फेसबुक की मित्र सभा भी | चूँकि धार्मिकता की व्यापकता हमारी महिलाओं में अधिक है , कहा जाय तो धार्मिक सारा व्यापर व्योहार मूलतः इन्ही कि आस्था पर आधारित है | इसलिए धर्मों की आलोचना इन्हें हमसे दूर ले जाती है , पूरी प्रकृति , जो स्वयं में स्त्रीलिंग है , हमसे विलग हो जाती है | और हमारा जीवन " दुःख का गागर " हो जाता है | यह कुफल है तार्किक वैज्ञानिक सोच का |