उग्रनाथ'नागरिक'(1946, बस्ती) का संपूर्ण सृजनात्मक एवं संरचनात्मक संसार | अध्यात्म,धर्म और राज्य के संबंध में साहित्य,विचार,योजनाएँ एवं कार्यक्रम @
सोमवार, 19 मार्च 2012
बूढ़ों मी कामना
* ये पंक्तियाँ मैं अब तक अर्जित अपनी सारी ख्याति को दाँव पर रखकर लिख रहा हूँ । इस ज़िम्मेदारी की भावना के साथ कि भावी पीढ़ी यह न कहने पाए कि कि मेरे जैसे महान विचारक के होते हुए भी एक बड़ा विचार दुनिया के सामने आने से रह गया । आज़ाद से आज़ाद समाजों में फ्री सेक्स की बात हो गयी । समलैंगिकता स्वीकार हो गयी । सेम सेक्स शादियाँ होने लगीं । स्त्री मुक्ति सभाओं में स्त्री योनिकता की भी खूब चर्चा हो गयी लेकिन यह सब युवाओं के सम्बन्ध में , युवाओं के द्वारा , युवाओं के लिए , युवाओं को ध्यान में रखकर होता है । लेकिन सबमे छूट जाती है वृद्धों की योनिकता की बात । मानो वे मरने से पहले ही सेक्सुअली मृत हो गए हों । इसकी किसी ने चिंता नहीं की , चिंता की ज़रुरत नहीं समझी । किसी धर्म , धर्म ग्रन्थ ने इस पर कोई व्याख्या नहीं दी । सबने उन्हें वानप्रस्थ या सन्यास पकड़ा दिया और देवता समान पूज्य बना कर किनारे रख दिया । आधुनिक समाज ने अधिक से अधिक उनके अकेलेपन या भरण - पोषण की समस्या दूर करने तक का ही उपाय किया । कुछ ख़बरें भले आ गयीं कि किसी अस्सी वर्ष के बूढ़े ने विवाह रचाई । पर विवाह तो स्थिर , स्थाई सामाजिक संस्था या अनुबंध होता है , जिसे वहां कर पाना हर बूढ़े के वश का नहीं होता । पर सेक्स तो हर बूढ़े - बूढ़ी को परेशान करता है । पर बूढ़े के लिए किसी फ्री सेक्स की ज़रुरत की बात या उसकी संतुष्टि के सम्बन्ध में किसी उपाय की अवधारणा किसी दार्शनिक ने नहीं की । आधुनिक से आधुनिक तक ने भी नहीं । क्या वे सोचते हैं कि हर क्रांतिकारी विचार केवल भारत के जिम्मे है ?
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें