* मैं जाति वाति नहीं मानता |
अरे , तब तो तुम बड़े अच्छे आदमी हो ||
मैं छुआछुत नहीं बरतता ,
यू आर ग्रेट यार |
मैं काले गोरे, देशी-विदेशी, स्त्री-पुरुष
में भेद स्वीकार नहीं करता ,
तुम तो भाई महान व्यक्ति हो |
मैं गरीबी अमीरी का भेद मिटाना चाहता हूँ ,
यह तो बहुत अच्छी सोच है तुम्हारी |
मैं दुनिया में युद्ध का विरोधी हूँ ,
अरे आप तो संत महात्मा, महात्मा गांधी हो |
मैं किसी संत-महात्मा, देवी-देवता का अनुयाई नहीं हूँ ,
अरे, यह कैसे हो सकता है ?
मैं धर्म-वर्म को भी नहीं मानता,
तब तो गड़बड़ आदमी हो तुम |
मैं ईश्वर को भी नहीं मानता ,
अरे, क्या बात करते हो ? तुम तो निरा राक्षस आदमी हो |
चलो दूर हटो , भाग जा यहाँ से, अधर्मी कहीं का !
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* वह कवि क्या
मतलब सही कवि ,
जो संत न हो !
* हर व्यक्ति बताता है मेरा इष्ट यह है , मेरे इष्ट यह हैं ।
मैं सोचता हूँ मुझसे पूछा जाय तो मैं क्या बताऊँगा ?
क्या स्वादइष्ट ठीक न रहेगा ?
* सबसे बड़ा योगी और नमाज़ी तो है मजदूर |काम मिल गया तो दिन भर में योग के सारे आयाम , व्यायाम , अष्टांग वैसे ही पूरे हो जाते हैं | यदि काम नहीं मिला तो गाँव से मुंबई या पंजाब तक की यात्रा खड़े खड़े , उठते - बैंठते उससे तमाम नमाज़ पूरे अदा करा लेती है |
* अकेला ईश्वर तो है नहीं
अल्लाह भी हैं और गॉड भी तो किसे छोड़ें , किसकी शरण में जाएँ ?
नहीं, एकै साधे सब नहीं सधता
एक भी साधोगे तो
दुसरे सब नाराज़ हो जाते हैं
उनमे आपसी द्वंद्व बढ़ जाते हैं |
सो , सबसे निरपेक्ष रहना ही उचित
श्रेय और श्रेयस्कर
सबका विरोध
सबको प्रणाम !
* वैसे भाई नीति तो यही है | कि किसी की मूर्खता पर मत हँसो | उसी प्रकार यह बात भी उचित ठहरती है | कि किसी धर्म की आलोचना मत करो ?
* पदचिन्हों पर चलना यद्यपि व्यापक है ,
प्रश्नचिन्ह का गायब होना घातक है ।
* मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि कोई कैसे कैसे कह देता है कि वह हिन्दू है या मुसलमान ? कोई कैसे जान लेता है कि वह अन्य आदमी हिन्दू या मुसलमान ? नाम को पर्याप्त सुबूत मानने से मैं इन्कार करना चाहता हूँ ।
* हमेशा आदमी हिन्दू मुसलमान थोड़े ही रहता है ! कभी वह आदमी भी होता है । यह ज़रूर है कि आदमी की आदमीयत को उसका मज़हब अपने खाते में डाल लेता है , और मज़हब हर हैवानियत को आदमी के मत्थे जड़कर किनारे हो जाता है । सच है कि आदमी ज़िम्मेदार है आतंकवाद का , लेकिन मजहब पर भी कभी तो उँगली उठाई जानी चाहिए ?
* चलिए, कुछ देर के लिए मानते हैं कि धर्म रहना चाहिए । लेकिन इसके पैरोकार सुधी जन यह भी मानते हैं कि धर्म की बुराइयों को हटाया जाना चाहिए ।
अब यह बताइये कि धर्म में क्या रहना चाहिए और क्या कालातीत, अप्रासंगिक हो गया है, इसे कौन तय करेगा ? धर्म प्रतिष्ठान और गुरु तो ऐसा करने से रहे ! तो यह बात तय तो आपका विवेक ही करेगा न ?
फिर तो उसी विवेक को ही अपना सच्चा और असली धारणीय धर्म क्यों न माना और बनाया जाय ?
हिन्दू मुसलमान तो बस समझो जातियाँ हैं । धर्म तो एक है ऐसा तो आप भी मानते हो ।
* आज मानो या कल मानो । मानो या बिल्कुल नहीं मानो । लेकिन यह बात तय मानो कि ईश्वर को मानना हर तरह से, समाज के लिए तो है ही, अपने लिए भी नुकसानदेह है ।
* धर्म रहना चाहिए , आदमी रहे न रहे ।
(क्यों यही तो है न ? )
* मुस्लिम देशों, शिया सुन्नी झगड़ों और मार काट पर कोई पोस्ट आता है , तो बचाव में कमेंट आने लगते हैं । इस्लाम यह नहीं है, वे मुसलमान नहीं हैं । इस्लाम तो यह, इस्लाम तो वह ! पैग़म्बर के सुकर्मों के उदाहरण आने लगते हैं ।
अब यहाँ दो बाते हैं :-
एक तो यह कि मानो यदि इस्लाम उसी शुद्ध और अपनी नैतिकता के अनुसार होता तो दुनिया स्वर्ग हो जाती ! क्या यह सत्य है ?
दूसरे यह कि इस्लाम यदि दूषित हुआ है तो भला ऐसा क्यों और कैसे होने पाया, परमशक्ति के वरदहस्त के बावजूद ? मुसलमान ऐसा कर रहा है तो ऐसा क्योंकर करने ही पा रहा है ? यदि मनुष्य ही उसके कर्मों के लिए ज़िम्मेदार है तो ईश्वर की फिर ज़रूरत क्या है ?
प्रश्न आखिर कब उठेंगे ? उठेंगे भी या ईश्वर के नाम पर ऐसे ही चलता रहेगा ?
* अगर कोई मज़हब दावा करता है कि वह मोहब्बत सिखाता है , तो उसपर भी हमारा प्रश्नचिन्ह है । क्यो करें हम मोहब्बत ? आदमी मोहब्बत करने लायक होगा तो करेंगे ही, तुम चाहे कहो या न कहो ।
और कोई आदमी घृणित, बहिष्कार करने योग्य है या सजा का हक़दार है तो उससे क्या तुम्हारे कहने से मोहब्बत कर लें ?
और फिर, मोहब्बत हम करें, उसका श्रेय तुम ले जाओ ? कि देखो, मैंने ही इसे मोहब्बत करना सिखाया है ?
* क़ुरान याद हो तो यजीदी लड़कियाँ मिलेगी ।
खबर तो जो है सो है । इस प्रकरण पर मैं पृथक अंदाज़ ए गौर रखता हूँ । मेरा ख्याल है कि इस मज़हब के प्रवर्तक और उसको फ़ैलाने वाले इंसानी प्रकृति और नीच प्रवृत्ति के अद्भुत ज्ञानी थे । उन्हें पता था कि मनुष्य के sex drive को लालच दे उसे किसी भी तरफ चलाया, drive किया जा सकता है ।
इसीलिए उन्होंने स्वर्ग में 72 हूरों का प्रबंध किया । और शर्त यह रख दी कि इस दुनिया में ज़िना (बलात्कार) नहीं करना । मतलब, यहाँ का अनुशासन तुम्हें वहाँ वृहत्तर सुख देगा । प्रमुखतः यौन सुख । है न लीडरशिप की बुद्धिमत्ता और मनो- मैनेजमेंट ?
सोचना पड़ता है, कहीं धर्म का मूल आकर्षण यौन सुख तो नहीं है ?
* बात सही है । यह मुझे भी उचित लगता है, यदि नास्तिकता कोई धर्म (संस्था के रूप में) न बने। यूँ तो यह वैसे भी नहीँ बन सकता क्योंकि यह स्वतंत्र विचार पर आधारित है । इसलिए इसका धर्म बनना इसके लिए घातक होगा । क्योंकि इसका कोई नपा तुला आचार व्यवहार का कोई पैमाना तो है नहीं । हर सदस्य स्वतंत्र होगा । कोई कट्टर आतंकवादी बन सकता है । कोई महान वैज्ञानिक डॉक्टर इंजीनियर राजनेता बनेगा । कोई चोर उचक्का बनेगा तो कोई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी । कहना न होगा शहीद भगत सिंह के नास्तिक स्वरुप को आदर नहीं देता, बल्कि शहीद के रूप में पूजा करता है ।
ऐसे में नास्तिकता, ठीक है कि नाम कमाएगी, लेकिन सच यह है कि यह बदनामी भी बटोरेगी । कम से कम यह गारंटी तो कतई है ही नहीं कि सारे नास्तिक उच्च कोटि के ही होंगे । तय यह है कि अन्य धर्मावलंबियों की भाँति नास्तिक भी अलग अलग प्रकृति और प्रवृत्ति के होंगे, और उन्हें कोई रोक नहीं सकता । ऐसे में यह विचार धर्म बन कर क्या करेगा ? ध्यान योग्य बात है कि धार्मिक लोग तो चाहते ही हैं कि हम धर्म बनें और वे हमसे पट्टीदारी का व्यवहार करें ।
* धर्म तो धर्म , अपना क्या पराया क्या ?
प्रबुद्ध मित्र बताते हैं :- सरदार भगतसिंह का कहना था कि अपने धर्म की आलोचना ज़रूर करो । तभी उसकी बुराई जान पाओगे ! ( और उसमे सुधार कर पाओगे ? )
लेकिन मेरा ख्याल है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य और भारत के सन्दर्भ में इस्लाम को पराया मानना बिल्कुल गलत और अनुचित होगा । क्योंकि वह भी धर्म या मजहब के रूप में इस ज़मीन पर सक्रिय है और एक धर्मकी भूमिका प्रमुखता से, प्रभावशाली ढंग से निभा.रहा है । कहा भी जाता है कि वह इस देश की मिट्टी में पूरा घुल मिल गया है । इसलिए केवल हिन्दू को अपना मानना और सिर्फ उसकी आलोचना करना फलदायी न होगा । बल्कि यदि हम ऐसा करते हैं तो यह माना जाना स्वाभाविक है कि हम हिन्दू ही नही , सांप्रदायिक भी हैं । हिन्दू कौम पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । अभी भी वह कहते ही हैं कि आप लोग 'उनके' बारे में कुछ नहीं लिखते/कहते ! तो, यह अपना पराया वाली बात मुझे त्रुटिपूर्ण प्रतीत हो रही है ।
* क्या किसी विषय विशेष में ज्ञान की अल्पता या अभिज्ञता उसके लिए हीनबोध का कारण बन सकती है ? मुझे तो ऐसा नहीं लगता । मुझे मेरे देश पर कोई शर्म नहीं आती, कोई उपालम्भ नहीं होता, न इससे मेरे देशभक्ति में कोई कमी आती है कि भारत विमान बनाने की कला नहीं जानता था ( यदि ऐसा हो ? पौराणिक गल्प को परे रख दें तो ! ) । यह अन्य किन्हीं विधाओं में प्रवीण, पारंगत और अग्रणी रहा हो सकता है । यदि ऐसा भी हो तो उस पर भी गुमान करने की मैं कोई ज़रूरत नहीं समझता । ज्ञान-विज्ञान सम्पूर्ण मानव सभ्यता की संपत्ति और धरोहर है । महत्वपूर्ण यह होगा कि किसने व्यापक हित सोचा !
या अभी तक नहीं सोचा गया , तो अब से सोचा जाना चाहिए ।
* So what if a person is recognized by his name ?
क्या हुआ यदि आदमी को उसके नाम से पहचाना जाता है ?
तमाम मित्रों के साथ हम भी चिंतित हो जाते हैं कि हम नाम से ही हिन्दू जान लिए जाते हैं, मुसलमान पहचान लिए जाते हैं ?
तो क्या ? नाम से ही तो औरत मर्द की भी पहचान हो जाती है ! तो क्या औरत मर्द साथ नहीं रहते ?
इसी प्रकार , नाम है तो है । बस नाम के लिए । नाम से बाहर निकलें । उसे एक किनारे रखकर उसके भीतर के आदमी को पहचानें । और उसी को मान्यता दें । उसे निखारें ।
नाम को नकारें । यह केवल परिचय के लिए identity card भर है । उतनी आवश्यकता भर उसका काम सीमित रखें ।
मेरा नाम उग्रनाथ है , लेकिन यकीन कीजिये मैं अपनी विनम्रता के लिए जाना जाता हूँ । गुस्से में कुछ चीखना चिल्लाना अलग बात है ।
* मुसलमान भाइयों की यह बात तो सही ही है । आतंकवादी संगठन कोई भी हिन्दू मुस्लिम नाम रखें, आतंकवादी किसी भी नाम से हों , उन्हें हिंदुत्व या इस्लाम से क्यों जोड़ें ? राजनीतिक रूप से वे हत्यारे हैं तो उन्हें हत्यारे मानें ।
मजबूरी सबकी होती है । हर कोई किसी मुल्क-देश का होता है, सबकी कोई खास भाषा होती है जिसमे उनके नाम शिक्षा दीक्षा होती है, उसके खानदान उसके धर्म का बैनर उसके साथ चिपकता ही है चाहे वह चाहे न चाहे । फिर उसे / सबको उन मजबूरियों से कुछ मोह भी हो जाता है, जिसे छेड़ने कुरेदने से उसे तकलीफ होती है । ऐसा ही हमें भी तो महसूस होता है ? फिर केवल मुसलमान को ही क्यों दोष दें । एक मित्र सही कहते हैं - सब आपके कथनानुसार- निर्देशानुसार तो आचरण-व्यवहार करेंगे नहीं । और इसकी आशा भी नहीं करनी चाहिए ।
धर्म मजहब भाषा राष्ट्रीयता आदि आदमी की मजबूरियाँ हैं । वह मजबूरी उनकी है तो वही आपकी और हमारी भी है ।
कुछ ऐसी समझ रखें तो कुहरा कुछ साफ़ होता दिख तो रहा है ।
* पहले मैं जानता था
नास्तिकों का कोई धर्म नहीं होता ,फिर पता चला कम्युनिस्ट लोग अधर्मी होते हैं लेकिन इन्होंने भाषण दिया
आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता ।
अब अपने ज्ञान से मुझे लगा
आज़ादी के दीवानों का कोई धर्म नहीं हुआ करता ,
भगत सिंह, अशफाक़ुल्लाह क्या किसी कोण से हिन्दू मुसलमान थे ?
फिर तो ग़ालिब भी मुझे मुसलमान नहीं लगे
अर्थात, शायर-कवि का धर्म
धर्मातीत होता है ।
वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर
धार्मिक हो नहीं सकते ।
फिर मैं उलझन में हूँ
धार्मिक कौन लोग होते हैं ?
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* आ बैल मुझे मार = 1
यदि पकिस्तान में आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं तो भी हम यह नहीं कहना चाहते कि इससे इस्लाम का कोई लेना देना है |लेकिन जब आपने स्वयं अपने देश को इस्लामी राज्य घोषित किया हुआ है , तो यह आँच अपने आप लग जाती है |
* आ बैल मुझे मार = 2
कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर | अंग्रेजी में - Empty mind is devil's workshop .
इसलिए पुराने लोगों ने दिमाग को ईश्वर, धर्म और देवी देवताओं से भर दिया | जिससे उसमे शैतान प्रवेश न कर पाए |
उन्हें पता नहीं था कि वे वही तो कर रहे हैं !
इससे अच्छा था दिमाग को खाली रहने देते | और उसे आदमी के हवाले कर देते !