तमाम बातें
उग्रनाथ'नागरिक'(1946, बस्ती) का संपूर्ण सृजनात्मक एवं संरचनात्मक संसार | अध्यात्म,धर्म और राज्य के संबंध में साहित्य,विचार,योजनाएँ एवं कार्यक्रम @
रविवार, 30 अक्तूबर 2022
saved book
शनिवार, 18 जून 2022
मूर्खता
शनिवार, 11 जून 2022
जीने की राह
गुरुवार, 26 मई 2022
बुधवार, 25 मई 2022
भला
अच्छा आदमी
बुधवार, 29 दिसंबर 2021
सोमवार, 28 सितंबर 2020
मेरानिर्णय
शुक्रवार, 11 सितंबर 2020
स्वधर्म
शनिवार, 29 अगस्त 2020
शुक्रवार, 31 जुलाई 2020
Dgspn
(व्यक्ति विरोध या विचार विरोध)
अम्बेडकरवाद एक तरफ "सामाजिक बदलाव" से जुड़ा है, दूसरी तरफ यह "धम्म" से भी जुड़ा है | बाबा साहेब का कार्य दो ध्रुवी है | बड़ा कठिन है यह मार्ग | दो अंतर्विरोधों को साथ लेकर चलना कितना दुरूह है ! भगवान बुद्ध ने कहा है "दो" हैं मार्ग | बाबा साहेब को दोनों मार्गों को साथ लेकर चलना पड़ रहा है | इसलिए ही अम्बेडकरवादियों में अंतर्विरोध नजर आ रहा है, द्वंद नजर आ रहा है | अम्बेडकरवादी जब "समाज" की बात करते हैं, तो धम्म बीच में आ जाता है | जब "धम्म" की बात करते हैं, तब समाज बीच में आ जाता है | जबकि दोनों की दिशाएं अलग अलग हैं | सवाल यह है कि दोनों में सामंजस कैसे बिठाएं ? नहीं, दोनों मार्गों पर एक साथ चलना सम्भव नहीं है |
वस्तुत: "धम्म" सम्रद्धता की नींव पर ही खड़ा हो सकता है | किसी भवन को बनाने के लिए नींव पहले ही रखनी होगी | नींव केवल पहले ही नहीं, मजबूत भी रखनी होगी | बाबा साहेब सम्रद्ध समाज के ऊपर धम्म का आलीशान भवन प्रस्थापित करना चाहते हैं | बाबा साहेब के "सामाजिक मिशन" के आधार में "धम्म के जीवन मूल्य" समाए हुए हैं | यदि बाबा साहब के मिशन में से धम्म के पहलुओं को निकाल दिया जाए, तो यह मिशन निरर्थक हो जाएगा | बाबा साहेब को यदि बौद्ध जगत ने महत्व दिया है, तो वह बुद्ध के कारण ही दिया है |
बुद्ध ने एक मानवीय दृष्टि दी है, कि विचार से तो सहमति व असहमति हो, परन्तु व्यक्ति से सदा सहमति बिना शर्त बनी रहे | बुद्ध किसी भी परिस्थिति में "मनुष्य" को इन्कार नहीं करते | इसमें हमेशा ऊपर उठने की सम्भावना बनी रहती है | बुद्ध ने मनुष्यों के बीच जोड़ने का इन्सुलेशन (रसायन) मैत्री भावना के माध्यम से दिया है | यह मैत्री-भाव भेदभाव रहित, व बिना शर्त है | इसमें ना तो पापी और पुण्यात्मा में भेद किया है, ना ही ब्राह्मण शुद्र में, ना ही गरीब अमीर में, ना ही स्त्री पुरुष में |
बुद्ध "भेदवाद" (विचार) से तो असहमत हैं, पर भेदवादियों (मनुष्य) से नहीं | बहुत बारीक अन्तर है | बुद्ध "मन" से तो असहमत हैं, पर "चित्त" से नहीं | क्यों ? क्योंकि मन परिवर्तनशील (अनित्य) है, चित्त सनातन (एस धम्मो सनन्तनो) है | क्योंकि मन के बदलने की सम्भावना के आधार पर व्यक्ति को नहीं छोड़ा जा सकता है | व्यक्ति का विरोध न होकर, विचार का विरोध हो, सोच का विरोध हो, दृष्टि का विरोध हो | सभी व्यक्तियों के तो पक्ष में होना है, सभी व्यक्तियों के प्रति तो भले का भाव रखना है, तभी तो हम बुद्ध की मैत्री "भाव-भावना" का पालन कर पाएगें | नहीं तो सारा मिशन, धम्म के जीवन मूल्यों से भटक जाएगा | अम्बेडकरवादियों से चूक इसी बिन्दु पर हो रही है | उन्होंने "विचार के विरोध को ही व्यक्ति विरोध से जोड़ दिया है |" वे इस पहलू पर विचार करते वक्त अपने अन्दर द्वेष ले आए हैं | यही अलगाव व घृणा की जड़ बन कर अम्बेडकरवादियों की छवि खराब कर रही है |
बुद्ध की इस दृष्टि से प्रभावित होकर बाद में संतों की व नाथ पंथों की श्रंखला ने अपनी उदार भाषा में कुछ इस ढंग से अभिव्यक्त किया है | संतों ने कहा है, "पाप से घृणा करो, पापी से नहीं |" यही बुद्ध की व बाबा साहब की मूल देशना है | मेरी दृष्टि इसी पर आधारित है | मैं इसी पर चलते हुए आगे बढ रहा हूं |
गुरुवार, 30 जुलाई 2020
Neglect than Opposing God IHU
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एक अंतरराष्ट्रीय Humanist and Ethical Union से जुड़े भारतीय मानवतावादी संघ की यह नीति है (Published 27 July) कि :-
"The idea of God is likely to suffer more from neglect than opposition. But Atheists can't leave the subject alone!"
तो जी हुज़ूर, हमने राम मंदिर के मामले को अस्सी के दशक से ही लगभग छोड़ा ही हुआ है । कुछ विरोध भी करते तो कैसे करते ? नास्तिकों के पास इतनी ताक़त कहाँ थी ? हमारी ताक़त तो आपलोग होते । लेकिन आपतो हमें पीछे खींचने में लग गए । विरोध न करो, बस नज़रअंदाज़ करो । यह तरीका ज़्यादा प्रभावी होगा और मसला जल्दी से मर जायेगा ।
जी हमारे मान्य गुरुवर, सचमुच वही फलित हुआ । मामला कचहरी से तय हो गया और अब राम मंदिर 5 अगस्त से बनना शुरू होने जा रहा है । कोई गगनचुम्बी मूर्ति भी राम की लगने जा रही है, कितने मीटर की है आप भी जानें, या पता करके मोद पाएँ । हम भी निश्चिंत घर में बैठे हैं ।
और इसी क्रम में अब आपका पेज पढ़ना भी neglect करने लगे हैं । शायद idea of god more suffer कर जाए । और हम सब अपने लक्ष्य को प्राप्त कर प्रसन्न हों !☺️😊😢
,,उग्र
बुधवार, 1 जुलाई 2020
जिसकी लाठी वही सेक्युलर
सोमवार, 22 जून 2020
मार्क्सवाद सिद्धांत है, विचारधारा नहीं, रोज़ बदलने वाली
पाखण्ड पार्टी
मंगलवार, 16 जून 2020
विज्ञान धर्म की स्थापना
गुरुवार, 11 जून 2020
Religiosity
बुधवार, 27 मई 2020
जीवन प्रपत्र
सोमवार, 18 मई 2020
सड़क पर शूद्र
चकमक
दडाकू
शनिवार, 16 मई 2020
मेरे मित्र
अकेला
बुधवार, 6 मई 2020
फेंको पाश , कविता
शुक्रवार, 1 मई 2020
इतिहास
Blasphemy
मई दिवस
श्रावस्ती
धर्मो रक्षति
गुरुवार, 30 अप्रैल 2020
डायरी 30 अप्रेल 20
मंगलवार, 28 अप्रैल 2020
बौद्ध
शनिवार, 25 अप्रैल 2020
दलित एक्टिविस्ट
बुधवार, 22 अप्रैल 2020
अम्बेडकर को माला
आय वर्ग
जात पात कुछ नहीं है । कोई अपनी जाति लेकर हरवक्त उसे चाटता नहीं है । फिर, जो रोग सर्वत्र, सबकी खोपड़ी में व्याप्त हो, वह महत्वहीन हो जाती है । सार्वजनिक होकर अपना महत्व खो देती है । "अरे यह किसी न किसी जाति का होगा ही", यह ज्ञान और भावना जातिवाद का असर समाप्त कर देती है । हाँ, जातिवादी लोग इसका कभी कोई खास इस्तेमाल करने के लिए अपनी जेब से निकाल लेते हैं । जैसे वोट फोट माँगते समय ।
वरना सच बात तो यह है, ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि आदमी अपने आय वर्ग से पहचाना है । खानसामा को पंडितजी कहकर बुला भले लें, उसकी इज़्ज़त उतनी ही है जितनी घर में झाड़ू पोंछा करने वाले की ।
सत्य से मुँह न मोड़ो, न हवा में रहो । फ़र्क़ कम ज़्यादा आमदनी वाले के बीच है । आप चाहे कम्युनिस्ट बनो या बनो, आप जानो , लेकिन बराबरी के लिए संघर्ष का और कोई रास्ता नहीं हॉ ।
- - उग्रता @ श्रावस्ती
सोमवार, 20 अप्रैल 2020
हाथ में हाथ
धार्मिकों की जब आलोचना करो तो वह अपने धर्म पर और दृढ़ आरूढ़ हो जाते हैं । खूंटा कसकर पकड़ लेते हैं । उन्हें छेड़ो नहीं तो वह हाथ ढीले रखते हैं ।
इसलिए मैं उन्हें छेड़ता नहीं । जब उनके हाथ ढीले होते हैं, उन हाथों को अपने हाथ में ले लेता हूँ ।
कॉकरोच
कल आपको हमने अपने धर्म के बारे में बताया । पाखण्ड नाम है हमारे धर्म का । संस्कारों, त्योहारों की नौटंकी । 😢
तदन्तर अपने भगवान को ढूंढने में लग गया । आखिर कौन है मेरा ईश्वर ? तब तो जिन ढूंढा तिन पाइयाँ ।
आख़िर मिल ही गया मुझे मेरे ईश्वर । हिट spray छिड़ककर आखिरी कॉकरोच को घर से भगाया । तो पकड़ में आ गया । कॉकरोच है मेरे ईश्वर का नाम । ये दोनों मेरे घर में नहीं रहने पाते ।
मंगलवार, 14 अप्रैल 2020
मेरा क्या
मेरे विचार यदि किसी अन्य, या किन्हीं दूसरों के विचार नहीं बनते तो वह बेकार हैं । हथेली पर लेकर मुझे चाटना थोड़े ही है !😢
मुराद
Democracy, और democracy के साथ साथ साम्यवाद, communism का कैसे तालमेल बिठाऊँ, यह मेरे लिए बहुत बड़ा उलझन का कारण रहा ।
कल युवा मित्र Gaurav Pratap Singh ने अंबेडकर का विचार उद्धृत कर बहुत कुछ/ क्या पूरा रास्ता साफ किया । उनका आभार, अंबेडकर जी के प्रति अनुग्रहीत ।
लोकतंत्र, democracy के आधार मूल्य समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व (बुद्ध के term में मैत्री) को भारतीय भावभूमि में मैंने केवल "मुहब्बत" के शाश्वत गुण से जोड़ एक कार्यस्थल चुना ।:-
"मुराद" : मुहब्बत राजनीतिक दल
कहने की आज़ादी
कुछ कहने की (अभिव्यक्ति की) आज़ादी का तभी कोई मतलब होगा जब अभिव्यक्ति (कथन) को सुना भी जाय ।
यहाँ तो हाल यह है कि क्यों सुनें? इसे तो गीता रामायण ने कहा, इसे तो बुद्ध चार्वाक ने कहा, इसे तो गांधी अंबेडकर ने कहा, मार्क्स लेनिन ने कहा, जीसस मोहम्मद ने कहा ।
फिर कोई मेरी तुम्हारी बात क्यों सुने? Freedom of thought and expression का क्या अचार डालेंगे ? वह आपको क्यों मिले ?
सोमवार, 13 अप्रैल 2020
आह, अफीम
आज एक राजनीतिक पोस्ट पर विचार करते समय मार्क्स की संदेशना का सूत्र समझ में आया (उनका आशय कुछ भी रहा हो)! कि उन्होंने क्यों धर्म को पीड़ितों की आह कहा ?
मैं अभी मानकर चल रहा हूँ कि राजनीति मनुष्य की मौलिक आवश्यकता है - व्यक्ति समूहों की व्यवस्था के काम और जीवनोपयोगी वस्तुओं, संसाधनऔर सुविधाओं के वितरण, नियमन और संचालन के लिए ।
यहाँ तक तो ठीक, लेकिन समूहों का आकार बढ़ने के साथ अपने ही राज्य (शासक सामंत कुछ भी कह लें) पर भुक्तभोगियों की पकड़ समाप्त (नहीं तो कम) होती गयी । मनुष्य सत्ता के सामने लाचार हो गया ।
तब उसने धर्म की ईजाद की जिसका सदस्य वह सत्ता से अलग रहकर भी हो सकता था । और कसरत, गाने बजाने, चीखने चिल्लाने में मस्त रह सकता था ।
राजनीतिक सत्ता में अपना माकूल स्थान न पाकर वह आह, आह कह बैठा। इसीलिए मार्क्स ने "धर्म" को पीड़ित मनुष्यता की "आह" बताना उचित समझा।
और इसी धर्म को अफीम कहना पड़ा, जिसके प्रभाव में मनुष्य हवास खोकर भूल जाता है कि उसका असली काम,कर्तव्य तो राज्य/व्यवस्था को वैज्ञानिक तरीके से चलाना/चलवाना है ।
(उग्र नागरिक, Radical Humanist)
कोरोना मंदिर
देखिये, क्रोनोलॉजी पकड़िये । बहुत पहले कभी एक निर्जीव वायरस ने मनुष्य के मस्तिष्क पर हमला किया था । तो मनुष्य ने उस अदृश्य अज्ञात को ईश्वर बताकर मंदिर में बैठा दिया । पूजा पाठ आराधना संकीर्त्तन में संलग्न मनुष्य को अब महसूस ही नहीं होता कि यह वही संहारक प्रलयंकारी वायरस है, जिससे संक्रमित होकर अब यह अभ्यस्त, conditioned हो गया है । 👍right?
उसी प्रकार इस नए निर्जीव, अदृश्य महाविनाशक किरोना के समक्ष नतमस्तक होकर इसका मंदिर बना देना चाहिए जिसमें वह पड़ा रहे मुँह पर मास्क लगाकर । अन्यथा तो यह भी सर्वव्यापी की तरह घूमता रहेगा और कहर मचाता रहेगा ।😢
रविवार, 12 अप्रैल 2020
प्रेम
मोहब्बत करने वाले बिना ज्ञानवान, धनवान, शक्तिमान होकर भी दुनिया पर कब्ज़ा कर सकते हैं ।
(नागरिकजी @ मोहब्बत International)
Love International
घृणा को दिल से निकालने के लिए थोड़ा मशक्कत करनी होती है ।
इसी को इस तरह भी कह सकते हैं कि प्रेम मोहब्बत करने के लिए मन की घृणा को थोड़ा/बहुत दबाना, परे हटाना, उससे मुक्ति पाना होता है।
अब उच्छृंखल, आज़ाद ख़्याल लोग लोकतन्त्र और स्वतंत्रता संग्राम का हवाला देकर इस बंधन को गुलामी या पराधीनता की संज्ञा देकर नकारें नहीं, तो यह मनुष्यता के लिए हितकर होगा ।
इस बात को दो एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाय तो विचार कुछ ठीक से जन मस्तिष्क तक पहुंचे :-
जैसे हम अधिकांश नागरिकों की प्रवृत्ति में शासन सत्ता सरकार के प्रति एक अजीब सा विक्षोभ, कहें तो घृणा उपजी है । तो क्या इसी से हम अपनी नागरिकता को संचालित होने दें ? नहीं, इस मन को मारकर ही हम अनुशासित व्यवहार द्वारा लिख पढ़कर भी सत्ता पर विचार प्रहार कर सकते हैं । सत्ता से अपना प्रेम, अपनी संलग्नता सर्वथा समाप्त तो नहीं कर सकते?
इसी प्रकार बहुलांश हिन्दू के मन में सहजीवी मुस्लिमों के प्रति आधारहीन, विचारहीन, दुष्प्रचार जनित घृणा जमकर व्याप्त हो गयी है (सरकार सम्मिलित)। हो सकता है इनके पास इसके पक्ष में मजबूत कारण हों । हम उसपर बहस विवाद न कर चलो उनका आरोप सही मान लेते हैं । तिस पर भी अपने मन से, चाहे योग ध्यान अध्यात्म पूजा पाठ द्वारा ही, इस घृणा को उन्हें निकालना ही होगा । चलिए इसे हठयोग कह लेते हैं, यह तो भारतीय है? ऐसा हर युग, सनातन से लेकर अब तक किया गया और आगे भी जब तक सृष्टि है तब तक करना ही पड़ेगा । यही धर्म है, धारण करने योग्य । इसी हठयोग, धर्म और अध्यात्म द्वारा मनुष्य से प्रेम करना ही पड़ेगा । इसे बंधन गुलामी न समझें। यह धर्म है, धर्म का अनुशासन है । इससे बंधना ही पड़ता है ।
तो अपनी घृणा से बलपूर्वक, नफ़रत से ज़बरदस्ती छुटकारा लेकर हिन्दू जमात को मुस्लिम जाति/ जनजाति से एकतरफा मोहब्बत की पैदावार करनी ही होगी, अपनी भारतीयता को सिद्ध (caa?) सफल और उच्चतर बनाने की ख़ातिर ।👍
(Love International)
ज़िद्दी
ज़िद्दी जमात (fb group)
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ज़िद्दी जमात: पिद्दी की ज़ात, खुराफ़ात ही खुराफ़ात, एकलव्य वाला पुरुषार्थ- आत्मविश्वास के साथ, डर को दे मात- बाबू उग्रनाथ!
Sense
ABSolute NONsense (fb group)
हँसते हुए महामारी कोरोना, प्रलयंकारी ईश्वर और विकासवादी राज्य का सामना करना।
(मजदूर वर्ग)
शनिवार, 11 अप्रैल 2020
बच्चों के नाम
प्रेम प्रहार
मुझे सन्देह है कि यदि मेरे बच्चे कल को शारजाह अथवा कनाडा में ही बस जायँ, तो दो तीन पीढ़ी बाद भी वह अपने बच्चों के नाम संस्कृत में धराएँगे ?😢
अकर्म
मैंने काम यह किया कि मैंने कुछ नहीं किया । (अकर्म?☺️)
मैंने अपने परिवार को अपनी ओर मोड़ने की कोई कोशिश नहीं की, बच्चों को कोई दिशानिर्देश नहीं दिया, मित्रों को विचारधारा नहीं पकड़ाई ।
सब उन्होंने अपने मन से अपना काम किया ।
और मेरा काम हो गया, होता गया ।
मैंने कुछ नहीं किया - यही मैंने काम किया ।
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020
धारणा की स्वतंत्रता
कोई व्यक्ति कोई भी विचार, वाद सिद्धांत कभी भी धारण कर सकता है , इसकी आज़ादी है, होनी ही चाहिए ।
और आगे वह उससे विमत, विरत, असहमत, बल्कि उसका आलोचक और विद्रोही भी हो सके, इसकी स्वतंत्रता भी उसे होनी चाहिये । किसी व्यक्ति या संस्था को उस पर उँगली उठाना नहीं चाहिए । इसी में democracy है, इसी में secularism है ।
- - मित्र नागरिक
बहस
युवावस्था में वैचारिक तीब्रता थी, तब मित्र से बहस में डर नहीं लगता था ।
अब बहस से डरता हूँ कहीं मित्र खो न जाएँ ।
फेल सरकार
दुःखद सूचना --
यह कि भारत ने अपनी ऋषिसुलभ आध्यात्मिक ज़िम्मेदारी नहीं निभाई ।
योगी जी ने, कुछ पुजारियों ने और शिवराज जी अवश्य कुछ हिम्मत दिखाई प्रतिबंध परे सार्वजनिक धार्मिक राजनीतिक कार्यक्रम करके । और चर्च के अनुयायी , इस्लाम के प्रचारकों ने तो अवश्य भक्ति दिखाई । लेकिन सरकार ने कोई भारतीय आध्यात्मिक कर्तव्य नहीं पूरा किया ।
थाली तोड़ने, दिया जलाने के आडम्बर के स्थान पर यह गीता, जिसे ये राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने वाले हैं, का तो उध्दरण देकर देश को आश्वस्त कर ही सकते थे ?
मृत्यु अवश्यम्भावी है । आत्मा अजर अमर है । इससे क्या डरना? अवश्य, संवैधानिक वैज्ञानिक दृष्टि से महामारी से सचेत / बचकर रहना तो लौकिक दृष्टि से आवश्यक है । तो मेरे प्यारे देशवासियो, यह - यह वह एहतियात पूरा बरतो, और अपना सामान्य जनजीवन धैर्य निष्ठा और नागरिकता के साथ जियो । हम और पूरे देश की राजकीय, चिकित्सकीय मशीनरी तुम्हारे साथ है । और किन्ही की यदि मौत आ ही जाती है तो शोक न करो और खुशी खुशी स्वीकार करो । हे पार्थ , गीता।की बात सुनो । जीवन का हथियार कमरे में बन्द होकर मत डालो । तुम्हारा क्या था, क्या लेकर आये थे क्या ले जाओगे । अर्जुन कोरोना से इस प्रकार युद्ध करो ।
अन्यथा किस दिन काम आयेंगी ये धर्म की किताबें जिनमें विश्व का सारा ज्ञान विज्ञान सनातन से भरा पड़ा है ? जिनके बल पर अपनी विश्व गुरुता का दावा सीना ठोंककर करते हो ? अपनी पारी आयी तो देश को अंदर करके निकल लिए?
निश्चय ही भारत ने अपनी आध्यात्मिक, मानसिक, नैतिक साहस की ज़िम्मेदारी नहीं निभाई । इन्हें नम्बर मिले बस दस बटे सौ ।
क्योंकि यदि वायरस पूर्ण समाप्त न हुआ तो क्या साल छः महीने तालाबंदी को खींचना उचित होगा?😢
(गुरुनाथ)